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________________ प्रमाणमीमांसा 233 योगिप्रत्यक्षके द्वारा व्याप्तिग्रहण करनेकी बात तो इसलिए निरर्थक है कि जो योगी है, उसे व्याप्तिग्रहण करनेका कोई प्रयोजन ही नहीं है। वह तो प्रत्यक्षसे ही समस्त साध्य-साधन पदार्थोंको जान लेता है। फिर योगिप्रत्यक्ष भी निर्विकल्पक होनेसे अविचारक है। अतः हम सब अल्पज्ञानियोंको अविशद पर अविसंवादी व्याप्तिज्ञान करानेवाला तर्क प्रमाण ही है। सामान्यलक्षणा प्रत्यासत्तिसे अग्नित्वेन समस्त अग्नियोंका और धमत्वेन समस्त धूमोंका ज्ञान तो हो सकता है, पर वह ज्ञान सामने दिखनेवाले अग्नि और धूमकी तरह स्पष्ट और प्रत्यक्ष नहीं है, और केवल समस्त अग्नियों और समस्त धूमोंका ज्ञान कर लेना ही तो व्याप्तिज्ञान नहीं है, किन्तु व्याप्तिज्ञानमें 'धुआँ अग्निसे ही उत्पन्न होता है, अग्निके अभावमें कभी नहीं होता' इस प्रकारका अविनाभावी कार्यकारणभाव गृहीत किया जाता है, जिसका ग्रहण प्रत्यक्षसे असम्भव है / अतः साध्य-साधनव्यक्तियोंका प्रत्यक्ष या किसी भी प्रमाणसे ज्ञान, स्मरण, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदि सामग्रीके बाद तो सर्वोपसंहारी व्याप्तिज्ञान होता है, वह अपने विषयमें संवादक है और संशय, विपर्यय आदि समारोपोंका व्यवच्छेदक होनेसे प्रमाण है। व्याप्तिका स्वरूप : अविनाभावसम्बन्धको व्याप्ति कहते हैं। यद्यपि सम्बन्ध द्वयनिष्ठ होता है, पर वस्तुतः वह सम्बन्धियोंकी अवस्थाविशेष ही है / सम्बन्धियोंको छोड़कर सम्बन्ध कोई पृथक वस्तु नहीं है। उसका वर्णन या व्यवहार अवश्य दोके बिना नहीं हो सकता, पर स्वरूप प्रत्येक पदार्थकी पर्यायसे भिन्न नहीं पाया जाता। इसी तरह अविनाभाव या व्याप्ति उन-उन पदार्थोंका स्वरूप ही है, जिनमें यह बतलाया जाता है। साध्य और साधनभूत पदार्थोंका वह धर्म व्याप्ति कहलाता है, जिसके ज्ञान और स्मरणसे अनुमानकी भूमिका तैयार होती है। 'साध्यके बिना साधनका न होना और साध्यके होनेपर ही होना' ये दोनों धर्म एक प्रकारसे साधननिष्ठ ही है। इसी तरह ‘साधनके होनेपर साध्यका होना ही' यह साध्यका धर्म है। साधनके होनेपर साध्यका होना ही अन्वय कहलाता है और साध्यके अभावमें साधनका न होना ही व्यतिरेक कहलाता है। व्याप्ति या अविनाभाव इन दोनों रूप होता है / यद्यपि अविनाभाव ( बिना-साध्यके अभावमें, अ-नहीं, भावहोना) का शब्दार्थ व्यतिरेकव्याप्ति तक ही सीमित लगता है, परन्तु साध्यके बिना नहीं होनेका अर्थ है, साध्यके होनेपर ही होना / यह अविनाभाव रूपादि गुणोंकी तरह इन्द्रियग्राह्य नहीं होता। किन्तु साध्य और साधनभूत पदार्थोके ज्ञान करनेके Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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