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________________ 232 जैनदर्शन बौद्ध' तर्करूप विकल्पज्ञानको व्याप्तिका ग्राहक मानते हैं, किन्तु चूंकि वह प्रत्यक्षपृष्ठभावी है और प्रत्यक्षके द्वारा गृहीत अर्थको विषय करनेवाला एक विकल्प है, अतः प्रमाण नहीं है / इस तरह वे इसे स्पष्ट रूपसे अप्रमाण कहते हैं / ___ अकलंकदेवने अपने विषयमें अविसंवादी होनेके कारण इसे स्वयं प्रमाण माना है। जो स्वयं प्रमाण नहीं है। वह प्रमाणोंका अनुग्रह कैसे कर सकता है ? अप्रमाणसेन तो प्रमाणके विषयका विवेचन हो सकता है और न परिशोधन ही। जिस तर्कमें विसंवाद देखा जाय उस तर्काभासको हम अप्रमाण कह सकते हैं, पर इतने मात्रसे अविसंवादी तर्कको भी प्रमाणसे बहिर्भत नहीं रखा जा सकता। 'संसारमें जितने भी धुआँ हैं वे सब अग्निजन्य हैं, अनग्निजन्य कभी नहीं हो सकते।' इतना लम्बा व्यापार न तो अविचारक इन्द्रियप्रत्यक्ष ही कर सकता है और न सुखादिसंवेदक मानसप्रत्यक्ष हो। इन्द्रियप्रत्यक्षका क्षेत्र नियत और वर्तमान है। चूंकि मानसप्रत्यक्ष विशद है, और उपयुक्त सर्वोपसंहारी व्याप्तिशान अविशद है, अत: वह मानसप्रत्यक्षमें अन्तर्भूत नहीं हो सकता। अनुमानसे व्याप्तिका ग्रहण तो इसलिए नहीं हो सकता कि स्वयं अनुमानकी उत्पत्ति ही व्याप्तिके अधीन है। इसे सम्बन्धग्राही प्रत्यक्षका फल कहकर भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता; क्योंकि एक तो प्रत्यक्ष कार्य और कारणभूत वस्तुको ही जानता है, उनके कार्यकारणसम्बन्धको नहीं। दूसरे, किसी ज्ञानका फल होना प्रमाणतामें बाधक भी नहीं है। जिस तरह विशेषणज्ञान सन्निकर्षका फल होकर भी विशेष्यज्ञानरूपी अन्य फलका जनक होनेसे प्रमाण है, उसी तरह तर्क भी अनुमानज्ञानका कारण होनेसे या हान, उपादान और उपेक्षाबुद्धि रूपी फलका जनक होनेसे प्रमाण माना जाना चाहिये / प्रत्येक ज्ञान अपने पूर्व ज्ञानका फल होकर भी उत्तरज्ञानकी अपेक्षा प्रमाण हो सकता है। तर्ककी प्रमाणतामें सन्देह करनेपर निस्सन्देह अनुमान कैसे उत्पन्न हो सकेगा? जिस प्रकार अनुमान एक विकल्प होकर भी प्रमाण है, उसी तरह तर्कके भी विकल्पात्मक होनेसे प्रमाण होनेमें बाधा नहीं आनी चाहिये। जिस व्याप्तिज्ञानके बलपर सुदृढ़ अनुमानकी इमारत खड़ी की जा रही है, उस व्याप्तिज्ञानको अप्रमाण कहना या प्रमाणसे बहिर्भूत रखना बुद्धिमानीकी बात नहीं है। 1. 'देशकालव्यक्तिव्याप्त्या च व्याप्तिरुच्यते, यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति / प्रत्यक्षपृष्ठश्च विकल्पो न प्रमाणं प्रमाणव्यापारानुकारी त्वसाविष्यते / ' --प्र० वा० मनोरथ० पृ० 7 / 2. लघी० स्व० श्लो० 11, 12 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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