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________________ प्रमाणमीमांसा 231 मीमांसक तर्कको एक विचारात्मक ज्ञानव्यापार मानते हैं और उसके लिए जैमिनिसूत्र और शबर भाष्य आदिमें 'ऊह' शब्दका प्रयोग करते हैं। पर उसे परिगणित प्रमाणसंख्यामें शामिल न करनेसे यह स्पष्ट है कि तर्क ( ऊह ) स्वयं प्रमाण न होकर किसी प्रमाणका मात्र सहायक हो सकता है। जैन परम्परामें अवग्रहके बाद होनेवाले संशयका निराकरण करके उसके एक पक्षकी प्रबल सम्भावना करानेवाला ज्ञानव्यापार 'ईहा' कहा गया है / इस ईहामें अवाय जैसा पूर्ण निश्चय तो नहीं है, पर निश्चयोन्मुखता अवश्य है। इस ईहाके पर्यायरूपमें ऊह और तक दोनों शब्दोंका प्रयोग तत्त्वार्थभाष्य में देखा जाता है, जो कि करीबकरीब नैयायिकोंकी परम्पराके समीप है। न्यायदर्शनमें तर्कको 16 पदार्थोंमें गिनाकर भी उसे प्रमाण नहीं कहा है / वह तत्त्वज्ञानके लिये उपयोगी है और प्रमाणोंका अनुग्राहक है / जैसा कि न्यायभाष्य में स्पष्ट लिखा है कि तर्क न तो प्रमाणोंमें संगृहीत है न प्रमाणान्तर है, किन्तु प्रमाणोंका अनुग्राहक है और तत्त्वज्ञानके लिये उसका उपयोग है। वह प्रमाणके विषयका विवेचन करता है, और तत्त्वज्ञानकी भूमिका तैयार कर देता है। ४जयन्त भट्ट तो और स्पष्ट रूपसे इसके सम्बन्धमें लिखते हैं कि सामान्यरूपसे ज्ञात पदार्थमें उत्पन्न परस्पर विरोधी दो पक्षोंमें एक पक्षको शिथिल बनाकर दूसरे पक्षकी अनुकूल कारणोंके बलपर दृढ़ सम्भावना करना तर्कका कार्य है। यह एक पक्षकी भवितव्यताको सकारण दिखाकर उस पक्षका निश्चय करनेवाले प्रमाणका अनुग्राहक होता है। तात्पर्य यह कि न्यायपरम्परामें तर्क प्रमाणोंमें संगृहीत न होकर भी अप्रमाण नहीं है। उसका उपयोग व्याप्तिनिर्णयमें होनेवाली व्यभिचारशंकाओंको हटाकर उसके मार्गको निष्कंटक कर देना है / वह व्याप्तिज्ञानमें बाधक और अप्रयोजकत्वशंकाको भी हटाता है। इस तरह तर्कके उपयोग और कार्यक्षेत्रमें प्रायः किसीको विवाद नहीं है, पर उसे प्रमाणपद देनेमें न्यायपरंपराको संकोच है। 1. देखो, शाबरभा० 6 / 1 / 1 / 2. 'ईहा ऊहा तर्कः परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इत्यनांन्तरम् / ' -तत्त्वार्थाधि० भा० 1 / 15 / 3. 'तको न प्रमाणसंगृहीतो न प्रमाणान्तरं प्रमाणानामनुग्राहकस्तत्वज्ञानाय कल्पते।' -न्यायभा० 1119 / 4. 'एकपक्षानुकूलकारणदर्शनात् तस्मिन् संभावनाप्रत्ययो भवितव्यतावभासः तदितरपक्षशैथिल्यापादने तद्ग्राहकप्रमाणमनुगृह्य तान् सुखं प्रवर्तयन् तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तर्कः।' -न्यायमं० पृ० 586 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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