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________________ 230 जैनदर्शन न तो विशद हैं और न प्रत्यक्षकी सीमामें आने लायक ही। पर प्रमाण अवश्य हैं, क्योंकि अविसंवादी हैं और सम्यग्ज्ञान हैं / 3. तक : व्याप्तिके ज्ञानको तर्क' कहते हैं / साध्य और साधनके सार्वकालिक सार्वदेशिक और सार्वव्यक्तिक अविनाभावसम्बन्धको व्याप्ति कहते हैं / अविनाभाव अर्थात् साध्यके बिना साधनका न होना, साधनका साध्यके होनेपर ही होना, अभावमें बिलकुल नहीं होना, इस नियमको सर्वोपसंहार रूपसे ग्रहण करना तर्क है, / सर्वप्रथम व्यक्ति कार्य और कारणका प्रत्यक्ष करता है, और अनेक बार प्रत्यक्ष होनेपर वह उसके अन्वयसम्बन्धकी भूमिकाकी ओर झुकता है। फिर साध्यके अभावमें साधनका अभाव देखकर व्यतिरेकके निश्चयके द्वारा उस अन्वयज्ञानको निश्चयात्मकरूप देता है। जैसे किसी व्यक्तिने सर्वप्रथम रसोईघरमें अग्नि देखी तथा अग्निसे उत्पन्न होता हुआ धुआँ भी देखा, फिर किसी तालाबमें अग्निके अभावमें, धुएंका अभाव देखा, फिर रसोईघरमें अग्निसे धुआँ निकलता हुआ देखकर वह निश्चय करता है कि अग्नि कारण है और धुआँ कार्य है। यह उपलम्भ-अनुपलम्भनिमित्तक सर्वोपसंहार करनेवाला विचार तककी मर्यादामें है। इसमें प्रत्यक्ष, स्मरण और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कारण होते हैं। इन सबकी पृष्ठभूमिपर 'जहाँ-जहाँ, जबजब धूम होता है, वहाँ-वहाँ, तब-तब अग्नि अवश्य होती है', इस प्रकारका एक मानसिक विकल्प उत्पन्न होता है, जिसे ऊह या तर्क कहते हैं / इस तर्कका क्षेत्र केवल प्रत्यक्षके विषयभूत साध्य और साधन ही नहीं हैं, किन्तु अनुमान और आगमके विषयभूत प्रमेयोंमें भी अन्वय और व्यतिरेकके द्वारा अविनाभावका निश्चय करना तर्कका कार्य है। इसीलिए उपलम्भ और अनुपलम्भ शब्दसे साध्य और साधनका सद्भावप्रत्यक्ष और अभावप्रत्यक्ष ही नहीं लिया जाता, किन्तु साध्य और साधनका दृढ़तर सद्भावनिश्चय और अभावनिश्चय लिया जाता है। वह निश्चय चाहे प्रत्यक्षसे हो या प्रत्यक्षातिरिक्त अन्य प्रमाणोंसे / ____ अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रह में प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे होने वाले सम्भावनाप्रत्ययको तर्क कहा है / किन्तु प्रत्यक्ष और अनुपलम्भ शब्दसे उन्हें उक्त अभिप्राय ही इष्ट है। और सर्वप्रथम जैनदार्शनिक परम्परामें तर्कके स्वरूप और विषयको स्थिर करनेका श्रेय भी अकलंकदेव को ही है। 1. 'उपलम्भानुपलम्भनिमित्तं व्याप्तिज्ञानमूहः।'–परीक्षामुख 311 / 2. 'संभवप्रत्ययस्तर्कः प्रत्यक्षानुपलम्भतः ।'-प्रमाणसं० श्लो० 12 / 3. लघीय० स्ववृत्ति का 10,11 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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