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________________ प्रमाणमीमांसा 229 रहा है, और गोनिष्ठ सादृश्यका स्मरण आ रहा है, फिर भी 'इसके समान वह है' इस प्रकारका विशिष्ट ज्ञान करनेके लिये स्वतन्त्र उपमान नामक प्रमाणकी आवश्यकता है। परन्तु यदि इस प्रकारसे साधारण विषयभेदके कारण प्रमाणोंकी संख्या बढ़ाई जाती है, तो 'गौसे विलक्षण भैंस है' इस वैलक्षण्य विषयक प्रत्यभिज्ञानको तथा 'यह इससे दूर है, यह इससे पास है, यह इससे ऊँचा है, यह इससे नीचा है' इत्यादि आपेक्षिक ज्ञानोंको भी स्वतन्त्र प्रमाण मानना पड़ेगा। वैलक्षण्यको सादृश्याभाव कहकर अभावप्रमाणका विषय नहीं बनाया जा सकता; अन्यथा सादृश्यको भी वैलक्षण्याभावप होनेका तथा अभावप्रमाणके विषय होनेका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। अतः एकत्व, सादृश्य, प्रातियोगिक, आपेक्षिक आदि सभी संकलनज्ञानोंको एक प्रत्यभिज्ञानकी सीमामें ही रखना चाहिए। नैयायिकका उपमान भी सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है : इसी तरह नैयायिक' 'गौकी तरह गवय होता है' इस उपमान वाक्यको सुनकर जङ्गलमें गवयको देखनेवाले पुरुषको होनेवाली 'यह गवय शब्दका वाच्य है' इस प्रकारको संज्ञा-संजीसम्बन्धप्रतिपत्तिको उपमान प्रमाण मानते हैं। उन्हें भी मीमांसकोंकी तरह वैलक्षण्य, प्रातियोगिक तथा आपेक्षिक संकलनोंको तथा एतनिमित्तक संज्ञासंज्ञीसम्बन्धप्रतिपत्तिको पृथक-पृथक् प्रमाण मानना होगा / अतः इन सब विभिन्नविषयक संकलन ज्ञानोंको एक प्रत्यभिज्ञान रूपसे प्रमाण माननेमें ही लाघव और व्यवहार्यता है। सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको अनुमान रूपसे प्रमाण कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि अनुमान करते समय लिङ्गका सादृश्य अपेक्षित होता है। उस सादृश्यज्ञानको भी अनुमान माननेपर उस अनुमानके लिङ्गसादृश्य ज्ञानको भी फिर अनुमानत्वकी कल्पना होनेपर अनवस्था नामका दूषण आ जाता है। यदि अर्थमें सादृश्यव्यवहारको सदृशाकारमूलक माना जाता है, तो सदृशाकारों में सदृश व्यवहार कैसे होगा? अन्य तद्गतसदृशाकारसे सदृशव्यवहारकी कल्पना करनेपर अनवस्था नामक दूषण आता है / अतः सादृश्यप्रत्यभिज्ञानको अनुमान नहीं माना जा सकता। प्रत्यक्ष ज्ञान विशद होता है और वर्तमान अर्थको विषय करनेवाला होता है। 'स एवाऽयम्' इत्यादि प्रत्यभिज्ञान चूंकि अतीतका भी संकलन करते हैं, अतः वे 1. 'प्रसिद्धार्थसाधात् साध्यसाधनमुपमानम् ।'-न्यायसू० 1316 / 2. 'उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात्साध्यसाधनम् / तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात्संशिप्रतिपादकम् ॥'-लघी० श्लो० 19 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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