________________ 228 जैनदर्शन व्यतिरेक रखनेके कारण प्रत्यक्ष प्रमाणमें ही अन्तर्भूत करते हैं। उनका कहना है कि स्मरणके बाद या स्मरणके पहले, जो भी ज्ञान इन्द्रिय और पदार्थके सम्बन्धसे उत्पन्न होता है, वह सब प्रत्यक्ष है। स्मृति अतीत अस्तित्वको जानती है, प्रत्यक्ष वर्तमान अस्तित्वको और स्मृतिसहकृत प्रत्यक्ष दोनों अवस्थाओंमें रहनेवाले एकत्व को जानता है / किन्तु जब यह निश्चित है कि चक्षुरादि इन्द्रियाँ सम्बद्ध और वर्तमान पदार्थको ही विषय करती हैं, तब स्मृतिकी सहायता लेकर भी वे अपने अविषयमें प्रवृत्ति कैसे कर सकती हैं ? पूर्व और वर्तमान दशामें रहनेवाला एकत्व इन्द्रियोंका अविषय है, अन्यथा गन्धस्मरणकी सहायतासे चक्षको गन्ध भी सुंघ लेनी चाहिये / 'सैकड़ों सहकारी मिलनेपर भी अविषयमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती' यह सर्वसम्मत सिद्धान्त है। यदि इन्द्रियोंसे ही प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है तो प्रथम प्रत्यक्ष कालमें ही उसे उत्पन्न होना चाहिये था। फिर इन्द्रियाँ अपने व्यापारमें स्मृतिकी अपेक्षा भी नहीं रखतीं।। नैयायिक' भी मीमांसकोंकी तरह ‘स एवाऽयम्' इस प्रतीतिको एक ज्ञान मानकर भी उसे इन्द्रियजन्य ही कहते हैं और युक्ति भी वही देते हैं / किन्तु जब इन्द्रियप्रत्यक्ष अविचारक है तब स्मरणकी सहायता लेकर भी वह कैसे 'यह वही है, यह उसके समान है' इत्यादि विचार कर सकता है ? जयन्त भट्टने इसीलिये यह कल्पना की है कि स्मरण और प्रत्यक्षके बाद एक स्वतन्त्र मानसज्ञान उत्पन्न होता है, जो एकत्वादिका संकलन करता है / यह उचित है, परन्तु इसे स्वतन्त्र प्रमाण मानना ही होगा। जैन इसी मानस संकलनको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। यह अबाधित है, अविसंवादी है और समारोपका व्यवच्छेदक है, अतएव प्रमाण है / जो प्रत्यभिज्ञान बाधित तथा विसंवादी हो, उसे प्रमाणाभास या अप्रमाण कहनेका मार्ग खुला हुआ है। उपमान सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है : मीमांसक सादृश्य प्रत्यभिज्ञानको उपमान नामका स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं / उनका कहना है कि जिस पुरुषने गौको देखा है, वह जब जङ्गलमें गवयको देखता है, और उसे जब पूर्वदृष्ट गौका स्मरण आता है, तब 'इसके समान है' इस प्रकारका उपमान ज्ञान पैदा होता है / यद्यपि गवयनिष्ठ सादृश्य प्रत्यक्षका विषय हो 1. देखो, न्यायवा० ता० टी० पृ० 139 / 2. न्यायमञ्जरी पृ० 461 / 3. 'प्रत्यक्षेणावबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते / विशिष्टस्यान्यतः सिद्धरुपमानप्रमाणता // ' -मी० श्लो० उपमान० श्लोक० 38 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org