________________ प्रमाणमीमांसा 227 और इस एकत्व-प्रतीतिका कारण सदृश अपरापरके उत्पादको कहते हैं। वे 'स एवायम्' में 'सः' अंशको स्मरण और 'अयम्' अंशको प्रत्यक्ष इस तरह दो स्वतन्त्र ज्ञान मानकर प्रत्यभिज्ञानके अस्तित्वको ही स्वीकार नहीं करना चाहते / किन्तु यह बात जब निश्चित है कि प्रत्यक्ष केवल वर्तमानको विषय करता है और स्मरण केवल अतीतको; तब इन दोनों सीमित और नियत विषयवाले ज्ञानोंके द्वारा अतीत और वर्तमान दो पर्यायोंमें रहनेवाला एकत्व कैसे जाना जा सकता है ? 'यह वही है' इस प्रकारके एकत्वका अपलाप करनेपर बद्धको ही मोक्ष, हत्यारेको ही सजा, कर्ज देने वालेको ही उसकी दी हुई रकमकी वसूली आदि सभी जगत्के व्यवहार उच्छिन्न हो जायगे। प्रत्यक्ष और स्मरणके बाद होनेवाले 'यह वही है' इस ज्ञानको यदि विकल्प कोटिमें डाला जाता है तो उसे ही प्रत्यभिमान माननेमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। किन्तु यह विकल्प अविसंवादी होनेसे स्वतन्त्र प्रमाण होगा। प्रत्यभिज्ञानका लोप करनेपर अनुमानकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकती / जिस व्यक्तिने पहले अग्नि और धूमके कार्यकारणभावका ग्रहण किया है, वही व्यक्ति जब पूर्वधूमके सदृश अन्य धुआँको देखता है, तभी गृहीत कार्यकारणभावका स्मरण होनेपर अनुमान कर पाता है। यहाँ एकत्व और सादृश्य दोनों प्रत्यभिज्ञानोंकी आवश्यकता है, क्योंकि भिन्न व्यक्तिको विलक्षण पदार्थके देखने पर अनुमान नहीं हो सकता। बौद्ध जिस एकत्वप्रतीतिके निराकरणके लिए अनुमान करते हैं और जिस एकात्माकी प्रतीतिके हटानेको नैरात्म्यभावना भाते हैं, यदि उस प्रतीतिका अस्तित्व ही नहीं है, तो क्षणिकत्वका अनुमान किस लिए किया जाता है ? और नैरात्म्य भावनाका उपयोग ही क्या है ? 'जिस पदार्थको देखा है, उसी पदार्थको मैं प्राप्त कर रहा हूँ' इस प्रकारके एकत्वरूप अविसंवादके बिना प्रत्यक्षमें प्रमाणताका समर्थन कैसे किया जा सकता है ? यदि आत्मैकत्वकी प्रतीति होती ही नहीं है, तो तन्निमित्तक रागादिरूप संस्कार कहाँसे उत्पन्न होगा ? कटकर फिर ऊँगे हुए नख और केशोंमें 'ये वही नख केशादि है' इस प्रकारकी एकत्वप्रतीति सादृश्यमूलक होनेसे भले ही भ्रान्त हो, परन्तु यह वही घड़ा है' इत्यादि द्रव्यमूलक एकत्वप्रतीतिको भ्रान्त नहीं कहा जा सकता। प्रत्यभिज्ञानका प्रत्यक्षमें अन्तर्भाव : मीमांसक' एकत्वप्रतीतिकी सत्ता मानकर भी उसे इन्द्रियोंके साथ अन्वय१. 'तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात् प्रागूल चापि यत्स्मृतेः / विज्ञानं जायते सर्व प्रत्यक्षमिति गम्यताम् // ' ----मी० श्लो० सू० 4 श्लो० 227 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org