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________________ 226 __- जैनदर्शन 2. प्रत्यभिज्ञान : वर्तमान प्रत्यक्ष और अतीत स्मरणसे उत्पन्न होनेवाला संकलनज्ञान प्रत्यभिज्ञान' कहलाता है। यह संकलन एकत्व, सादृश्य, वैसादृश्य, प्रतियोगी, आपेक्षिक आदि अनेक प्रकारका होता है। वर्तमानका प्रत्यक्ष करके उसीके अतीतका स्मरण होनेपर 'यह वही है' इस प्रकारका जो मानसिक एकत्वसंकलन होता है, वह एकत्वप्रत्यभिज्ञान है। इसी तरह 'गाय' सरीखा गवय होता है' इस वाक्यको सुनकर कोई व्यक्ति वनमें जाता है और सामने गाय सरीखे पशुको देखकर उस वाक्यका स्मरण करता है, और फिर मनमें निश्चय करता है कि यह गवय है / इस प्रकारका सादृश्यविषयक संकलन सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है / 'गायसे विलक्षण भैस होती है' इस प्रकारके वाक्यको सुनकर जिस बाड़ेमें गाय और भैंस दोनों मौजूद हैं, वहाँ जानेवाला मनुष्य गायसे विलक्षण पशुको देखकर उक्त वाक्यको स्मरण करता है और निश्चय करता है कि यह भैस है। यह वैलक्षण्यविषयक संकलन वैसदृश्यप्रत्यभिज्ञान है। इसी प्रकार अपने समीपवर्ती मकानके प्रत्यक्षके बाद दूरवर्ती पर्वतको देखनेपर पूर्वका स्मरण करके जो 'यह इससे दूर है' इस प्रकार आपेक्षिक ज्ञान होता है वह गातियोगिक प्रत्यभिज्ञान है / 'शाखादिवाला वृक्ष होता है', 'एक सींगवाला गेंडा होता है', 'छह पैरवाला भ्रमर होता है इत्यादि परिचायक-शब्दोंको सुनकर व्यक्तिको उन-उन पदार्थोके देखनेपर और पूर्वोक्त परिचयवाक्योंको स्मरणकर जो 'यह वृक्ष है, यह गेंडा है' इत्यादि ज्ञान उत्पन्न होते हैं, वे सब भी प्रत्यभिज्ञान ही हैं। तात्पर्य यह कि दर्शन और स्मरणको निमित्त बनाकर जितने भी एकत्वादि विषयक मानसिक संकलन होते हैं, वे सभी प्रत्यभिज्ञान हैं। ये सब अपने विषयमें अविसंवादी और समारोपके व्यवच्छेद होनेसे प्रमाण हैं / सः और अयम्को दो ज्ञान माननेवाले बौद्धका खंडन : ___२बौद्ध पदार्थको क्षणिक मानते हैं। उनके मतमें वास्तविक एकत्व नहीं है / 'अतः स एवायम्' 'यह वही है' इस प्रकारकी प्रतीतिको वे भ्रान्त ही मानते हैं, 1. 'दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिशानम् / तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रति योगीत्यादि ।'–परीक्षामुख 3 / 5 / / 2. '...तस्मात् स एवायमिति प्रत्ययद्वयमेतत् / ' -प्रमाणवार्तिकाल० पृ० 51 / 'स इत्यनेन पूर्वकालसम्बन्धी स्वभावो विषयीक्रियते, अयमित्यनेन च वर्तमानकालसम्बन्धी। अनयोश्च भेदो न कथञ्चिदभेदः...' -प्रमाणवा० स्ववृ० टी० पृ० 78 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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