________________ प्रमाणमीमांसा 225 निषिद्ध हुआ, तब अन्य व्यावहारिक स्मृतियोंमें उस परतन्त्रताकी छाप अनुभवाधीन होनेके कारण बराबर चालू रही और यह व्यवस्था हुई कि जो स्मृतियाँ पूर्वानुभवका अनुगमन करती हैं वे ही प्रमाण हैं, अनुभवके बाहरकी स्मृतियाँ प्रमाण नहीं हो सकतीं, अर्थात् स्मृतियाँ सत्य होकर भी अनुभवको प्रमाणताके बलपर ही अवि. संवादिनी सिद्ध हो पाती हैं; अपने बलपर नहीं। भट्ट जयन्त' ने स्मृतिकी अप्रमाणताका कारण गृहीत-ग्राहित्व न बताकर उसका ‘अर्थसे उत्पन्न न होना' बताया है; परन्तु जब अर्थको ज्ञानमात्रके प्रति कारणता ही सिद्ध नहीं है, तब अर्थजन्यत्वको प्रमाणताका आधार नहीं बनाया जा सकता ! प्रमाणताका आधार तो अविसंवाद ही हो सकता है / गृहीतग्राही भी शान यदि अपने विषयमें अविसंवादी है तो उसकी प्रमाणता सुरक्षित है। यदि अर्थजन्यत्वके अभावमें स्मृति अप्रमाण होती है तो अतीत और अनागतको विषय करनेवाले अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकेंगे। जैनोंके सिवाय अन्य किसी भी वादीने स्मृतिको स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना है। जब कि जगत्के समस्त व्यवहार स्मृतिकी प्रमाणता और अविसंवादपर ही चल रहे हैं तब वे उसे प्रमाण कहनेका साहस तो नहीं कर सकते, पर प्रमाका व्यवहार स्मृति-भिन्न ज्ञानमें करना चाहते हैं। धारणा नामक अनुभव पदार्थको ‘इदम्' रूपसे जानता है, जब कि संस्कारसे होनेवाली स्मृति उसी पदार्थको 'तत्' रूपसे जानती है। अतः उसे एकान्त रूपसे गृहीतग्राहिणी भी नहीं कह सकते हैं / प्रमाणताके दो ही आधार हैं-अविसंवादी होना तथा समारोपका व्यवच्छेद करना / स्मृतिको अविसंवादिता स्वतः सिद्ध है, अन्यथा अनुमानकी प्रवृत्ति, शब्दव्यवहार और जगत्के समस्त व्यवहार निर्मूल हो जायँगे / हाँ, जिस-जिस स्मृतिमें विसंवाद हो उसे अप्रमाण या स्मृत्याभास कहनेका मार्ग खुला हुआ है। विस्मरण, संशय और विपर्यासरूपी समारोपका निराकरण स्मृतिके द्वारा होता ही है। अतः इस अविसंवादी ज्ञानको परोक्षरूपसे प्रमाणता देनी ही होगी। अनुभवपरतन्त्र होनेके कारण वह परोक्ष तो कही जा सकती है, पर अप्रमाण नहीं; क्योंकि प्रमाणता या अप्रमाणताका आधार अनुभवस्वातन्त्र्य नहीं है। अनुभूत अर्थको विषय करनेके कारण भी उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, अन्यथा अनुभूत अग्निको विषय करनेवाला अनुमान भी प्रमाण नहीं हो सकेगा। अतः स्मृति प्रमाण है; क्योंकि वह सवविषयमें अविसंवादिनी है। 1. 'न स्मृतेरप्रमाणत्वं गृहीतग्राहिताकृतम् / किन्त्रनर्थजन्यत्वं तदप्रामाण्यकारणम् ॥'-न्यायमं० पृ० 23 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org