SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 257
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 224 जैनदर्शन हो सकता। यह तो प्रमाताकी कुशलतापर निर्भर करता है कि वह पदार्थोंके कितने और कैसे सूक्ष्म या स्थूल कार्य-कारणभावको जानता है / आप्तके वाक्यकी प्रमाणता हमें व्यवहारके लिए मानना ही पड़ती है, अन्यथा समस्त सांसारिक व्यवहार छिन्नविच्छिन्न हो जायेंगे / मनुष्यके ज्ञानकी कोई सीमा नहीं है, अतः अपनी मर्यादामें परोक्षज्ञान भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण ही है। यह खुला रास्ता है कि जो ज्ञान जिस अंशमें विसंवादी हों उन्हें उस अंशमें प्रमाण माना जाय। 1. स्मरण : 'संस्कारका उद्बोध होनेपर स्मरण उत्पन्न होता है। यह अतीतकालीन पदार्थको विषय करता है। और इसमें 'तत्' शब्दका उल्लेख अवश्य होता है / यद्यपि स्मरणका विषयभूत पदार्थ सामने नहीं है, फिर भी वह हमारे पूर्व अनुभवका विषय तो था ही, और उस अनुभवका दृढ़ संस्कार हमें सादृश्य आदि अनेक निमित्तोंसे उस पदार्थको मनमें झलका देता है। इस स्मरणकी बदौलत ही जगत्के समस्त लेन-देन आदि व्यवहार चल रहे हैं। व्याप्तिस्मरणके बिना अनुमान और संकेतस्मरणके बिना किसी प्रकारके शब्दका प्रयोग ही नहीं हो सकता। गुरुशिष्यादि-सम्बन्ध, पिता-पुत्रभाव तथा अन्य अनेक प्रकारके प्रेम, घृणा, करुणा आदि मूलक समस्त जीवन-व्यवहार स्मरणके ही आभारी हैं / संस्कृति, सभ्यता और इतिहासकी परम्परा स्मरणके सूत्रसे ही हम तक आयी है। स्मृतिको अप्रमाण कहनेका मूल कारण उसका 'गृहीतग्राही होना' बताया जाता है। उसकी अनुभवपरतन्त्रता प्रमाणव्यवहारमें बाधक बनती है। अनुभव जिस पदार्थको जिस रूपमें जानता है, स्मृति उससे अधिकको नहीं जानती और न उसके किसी नये अंशका ही बोध करती है। वह पूर्वानुभवकी मर्यादामें ही सीमित है, बल्कि कभी-कभी तो अनुभवसे कमकी ही स्मृति होती है। ___ वैदिक परम्परामें स्मृतिको स्वतन्त्र प्रमाण न माननेका एक ही कारण है कि मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य आदि स्मृतियाँ पुरुषविशेषके द्वारा रची गई हैं / यदि एक भी जगह उनका प्रामाण्य स्वीकार कर लिया जाता है, तो वेदकी अपौरुषेयता और उसका धर्मविषयक निर्बाध अन्तिम प्रामाण्य समाप्त हो जाता है। अतः स्मृतियाँ वहीं तक प्रमाण हैं जहाँतक वे श्रुतिका अनुगमन करती हैं, यानी श्रुति स्वतः प्रमाण है और स्मृतियोंमें प्रमाणताकी छाया श्रुतिमूलक होनेसे ही पड़ रही है। इस तरह जब एक बार स्मृतियोंमें श्रुतिपरतन्त्रताके कारण स्वतःप्रामाण्य 1.. 'संस्कारोबोधनियन्धना तदित्याकारा स्मृतिः।-परीक्षामुख 3 / 3 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy