________________ प्रमाणमीमांसा 223 आगम। परोक्ष प्रमाणकी इस तरह सुनिश्चित सीमा अकलंकदेवने ही सर्वप्रथम बाँधी है और यह आगेके समस्त जैनाचार्यों द्वारा स्वीकृत रही। चार्वाकके परोक्षप्रमाण न माननेकी आलोचना : चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाणसे भिन्न किसी अन्य परोक्ष प्रमाणकी सत्ता नहीं मानता / प्रमाणका लक्षण अविसंवाद करके उसने यह बताया है कि इन्द्रियप्रत्यक्षके सिवाय अन्य ज्ञान सर्वथा अविसंवादी नहीं होते। अनुमानादि प्रमाण बहुत कुछ संभावनापर चलते हैं और ऐसा कहनेका कारण यह है कि देश, काल और आकारके भेदसे प्रत्येक पदार्थकी अनन्त शक्तियाँ और अभिव्यक्तियाँ होती हैं। उनमें अव्यभिचारी अविनाभावका ढूंढ लेना अत्यन्त कठिन है। जो आँवले यहाँ कषायरसवाले देखे जाते हैं, वे देशान्तर और कालान्तरमें द्रव्यान्तरका सम्बन्ध होनेपर मीठे रसवाले भी हो सकते हैं। कहीं-कहीं धूम साँपकी वामीसे निकलता हुआ देखा जाता है / अतः अनुमानका शत-प्रतिशत अविसंवादी होना असम्भव बात है / यही बात स्मरणादि प्रमाणोंके सम्बन्धमें है। परन्तु अनुमान प्रमाणके माने बिना प्रमाण और प्रमाणाभासका विवेक भी नहीं किया जा सकता। अविसंवादके आधारपर अमुक ज्ञानोंमें प्रमाणताकी व्यवस्था करना और अमुक ज्ञानोंको अविसंवादके अभावमें अप्रमाण कहना अनुमान ही तो है / दूसरेकी बुद्धिका ज्ञान अनुमानके बिना नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धिका इन्द्रियोंके द्वारा प्रत्यक्ष असम्भव है। वह तो व्यापार, वचनप्रयोग आदि कार्योंको देखकर ही अनुमित होती है। जिन कार्यकारणभावों या अविनाभावोंका हम निर्णय न कर सके अथवा जिनमें व्यभिचार देखा जाय उनसे होनेवाला अनुमान भले ही भ्रान्त हो जाय, पर अव्यभिचारी कार्य-कारणभाव आदिके आधारसे होनेवाला अनुमान अपनी सीमामें विसंवादी नहीं हो सकता / परलोक आदिके निषेधके लिए भी चार्वाकको अनुमानकी ही शरण लेनी पड़ती है / वामीसे निकलनेवाली भाफ और अग्निसे उत्पन्न होनेवाले धुआंमें विवेक नहीं कर सकना तो प्रमाताका अपराध है, अनुमानका नहीं / यदि सीमित क्षेत्रमें पदार्थों के सुनिश्चित कार्य-कारणभाव न बैठाये जा सकें, तो जगत्का समस्त व्यवहार ही नष्ट हो जायगा / यह ठीक है कि जो अनुमान आदि विसंवादी निकल जाय उन्हें अनुमानाभास कहा जा सकता है, पर इससे निर्दुष्ट अविनाभावके आधारसे होनेवाला अनुमान कभी मिथ्या नहीं 1. प्रमाणेतरसामान्यस्थितेरन्यधियो गतेः / प्रमाणान्तरसद्भावः प्रतिषेधाच्च कस्यचित् // -धर्मकीर्तिः (प्रमाणमी० पृ० 8) / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org