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________________ 222 जैनदर्शन ( इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला प्रत्यक्ष ) को परोक्ष माननेपर लोकविरोधका प्रसंग था, जिसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष मानकर हल कर लिया गया था। अकलंकदेवके इस सम्बन्धमें दो मत उपलब्ध होते हैं। वे राजवातिकमें अनुमान आदि ज्ञानोंको स्वप्रतिपत्तिके समय अनक्षरश्रुत और परप्रतिपत्तिकालमें अक्षरश्रुत कहते हैं / उनने लघीयस्त्रय ( कारिका 67 ) में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, चिन्ता और अभिनिबोधको मनोमति बताया है और कारिका 10 में मति, स्मृति आदि ज्ञानोंको शब्दयोजनाके पहले सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और शब्दयोजना होनेपर उन्हीं ज्ञानोंको श्रुत कहा है। इस तरह सामान्यरूपसे मतिज्ञानको परोक्षकी सीमामें आनेपर भी उसके एक अंश-मतिको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहनेकी और शेषस्मति आदिक ज्ञानोंको परोक्ष कहने की भेदक रेखा क्या हो सकती है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है / इसका समाधान परोक्षके लक्षणसे ही हो जाता है। अविशद अर्थात् अस्पष्ट ज्ञानको परोक्ष कहते हैं / विशदताका अर्थ है, ज्ञानान्तरनिरपेक्षता / जो ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें किसी दूसरे ज्ञानकी अपेक्षा रखता हो अर्थात् जिसमें ज्ञानान्तरका व्यवधान हो, वह ज्ञान अविशद है। पाँच इन्द्रिय और मनके व्यापारसे उत्पन्न होनेवाले इन्द्रियप्रत्यक्ष और अनिन्द्रियप्रत्यक्ष चूंकि केवल इन्द्रियव्यापारसे उत्पन्न होते हैं, अन्य किसी ज्ञानान्तरकी अपेक्षा नहीं रखते, इसलिए अंशतः विशद होनेसे प्रत्यक्ष हैं, जब कि स्मरण अपनी उत्पत्तिमें पूर्वानुभवकी, प्रत्यभिज्ञान अपनी उत्पत्तिमें स्मरण और प्रत्यक्षकी, तर्क अपनी उत्पत्तिमें स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञानकी, अनुमान अपनी उत्पत्तिमें लिङ्गदर्शन और व्यातिस्मरणकी तथा श्रुत अपनी उत्पत्तिमें शब्दश्रवण और संकेतस्मरणकी अपेक्षा रखते हैं, अतः ये सब ज्ञानान्तरसापेक्ष होनेके कारण अविशद हैं और परोक्ष हैं। ___ यद्यपि ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान अपनी उत्पत्तिमें पूर्व-पूर्व प्रतीतिकी अपेक्षा रखते हैं तथापि ये ज्ञान नवीन-नवीन इन्द्रियव्यापारसे उत्पन्न होते हैं और एक ही पदार्थकी विशेष अवस्थाओंको विषय करनेवाले हैं, अतः किसी भिन्नविषयक ज्ञानसे व्यवहित नहीं होनेके कारण सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष ही हैं। एक ही ज्ञान दूसरे-दूसरे इन्द्रियव्यापारोंसे अवग्रह आदि अतिशयोंको प्राप्त करता हुआ अनुभवमें आता है; अतः ज्ञानान्तरका अव्यवधान यहाँ सिद्ध हो जाता है। परोक्षज्ञान पाँच प्रकारका होता है-स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और 1. 'शानमाद्यमतिः संज्ञा चिन्ता चाभिनिबोधकम् / प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् // 10 // ' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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