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________________ प्रमाणमीमांसा 19 पर सूर्यका प्रकाश / अपने अनन्तशक्तिवाले ज्ञान गुणके विकासकी परमप्रकर्ष अवस्था ही सर्वज्ञता है। आत्माके गुण जो कर्मवासनाओंसे आवृत हैं, वे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप साधनाओंसे प्रकट होते हैं / जैसे कि किसी इष्टजनकी भावना करनेसे उसका साक्षात् स्पष्ट दर्शन होता है। प्रश्न-यदि सर्वज्ञके ज्ञानमें अनादि और अनन्त झलकते हैं तो उनकी अनादिता और अनन्तता नहीं रह सकती ? उत्तर-जो पदार्थ जैसे हैं वे वैसे ही ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं। यदि आकाशकी क्षेत्रकृत और कालकी समयकृत अनन्तता है तो वह उसी रूपमें ज्ञानका विषय होती है। यदि द्रव्य अनन्त हैं तो वे भी उसी रूपमें ही ज्ञानमें प्रतिभासित होते हैं / मौलिक द्रव्यका द्रव्यत्व यही है जो वह अनादि और अनन्त हो। उसके इस निज स्वभावको अन्यथा नहीं किया जा सकता और न अन्य रूपमें वह केवलज्ञानका विषय हो होता है। अतः जगत्के स्वरूपभूत अनादि अनन्तत्वका उसी रूपमें ज्ञान होता है। प्रश्न-आगममें कहे गये साधनोंका अनुष्ठान करके सर्वज्ञता प्राप्त होती है और सर्वज्ञके द्वारा आगम कहा जाता है, अतः दोनों परस्पराश्रित होनेसे असिद्ध हैं ? उत्तर-सर्वज्ञ आगमका कारक है। प्रकृत सर्वज्ञका ज्ञान पूर्वसर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित आगमार्थके आचरणसे उत्पन्न होता है और पूर्वसर्वज्ञका ज्ञान तत्पूर्व सर्वज्ञके द्वारा प्रतिपादित आगमार्थके आचरणसे। इस तरह पूर्व-पूर्व सर्वज्ञ और आगमोंकी शृंखला बीजांकुर सन्ततिकी तरह अनादि है। और अनादि सन्ततिमें अन्योन्याश्रय दोषका विचार नहीं होता / मुख्य प्रश्न यह है कि क्या आगम सर्वज्ञके बिना हो सकता है ? और पुरुष सर्वज्ञ हो सकता है या नहीं ? दोनोंका उत्तर यह है कि पुरुष अपना विकास करके सर्वज्ञ बन सकता है, और उसीके गुणोंसे वचनोंमें प्रमाणता आकर वे वचन आगम नाम पाते हैं। प्रश्न-जब आजकल प्रायः पुरुष रागी, द्वेषी और अज्ञानी ही देखे जाते हैं तब अतीत या भविष्यमें कभी किसी पूर्ण वीतरागी या सर्वज्ञ की सम्भावना कैसे को जा सकती है ? क्योंकि पुरुषकी शक्तियोंको सीमाका उल्लंघन नहीं हो सकता ? उत्तर-यदि हम पुरुषातिशयको नहीं जान सकते, तो इससे उसका अभाव नहीं किया जा सकता। अन्यथा आजकल कोई वेदका पूर्ण जानकार नहीं देखा जाता, तो अतीतकालमें 'जैमिनिको भी वेदज्ञान नहीं था, यह प्रसङ्ग प्राप्त होगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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