SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 253
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 220 जैनदर्शन हमें तो यह विचारना है कि आत्माके पूर्णज्ञानका विकास हो सकता है या नहीं? और जब आत्माका स्वरूप अनन्तज्ञानमय है तब उसके विकासमें क्या बाधा है जो आवरणकी बाधा है, वह साधनासे उसी तरह हट सकती है, जैसे अग्निमें तपानेसे सोनेका मैल / प्रश्न-सर्वज्ञ जब रागी आत्माके रागका या दुःखका साक्षात्कार करता है तब वह स्वयं रागी और दुःखी हो जायगा ? उत्तर-दुःख या रागको जान लेने मात्रसे कोई दुःखी या रागी नहीं होता। रागी तो, आत्मा जब स्वयं राग रूपसे परिणमन करे, तभी होता है। क्या कोई श्रोत्रिय ब्राह्मण मदिराके रसका ज्ञान रखने मात्रसे मद्यपायी कहा जा सकता है ? रागके कारण मोहनीय आदि कर्म सर्वज्ञसे अत्यन्त उच्छिन्न हो गये हैं, वह पूर्ण वीतराग है, अतः परके राग या दुःख के जान लेने मात्रसे उसमें राग या दुःखरूप परिणति नहीं हो सकती। प्रश्न-सर्वज्ञ अशुचि पदार्थों को जानता है तो उसे उसके रसास्वादनका दोष लगना चाहिए ? उत्तर-ज्ञान सरी वस्तु है और रसका आस्वादन दूसरी वस्तु है / आस्वादन रसना इन्द्रियके द्वारा आनेवाला स्वाद है जो इन्द्रियातीत ज्ञानवाले सर्वज्ञके होता ही नहीं है / उसका ज्ञान तो अतीन्द्रिय है। फिर जान लेने मात्रसे रसास्वादनका दोष नहीं हो सकता; क्योंकि दोष लो तब लगता है जब स्वयं उसमें लिप्त हुआ जाय और तद्रूप परिणति की जाय, जो सर्वज्ञ वीतरागीमें होती नहीं। प्रश्न-सर्वज्ञ को धर्मी बनाकर दिये जानेवाले कोई भी हेतु यदि भावधर्म यानी भावात्मक सर्वज्ञ के धर्म हैं; तो असिद्ध हो जाते हैं ? यदि अभावात्मक सर्वज्ञके धर्म हैं; तो विरुद्ध हो जायगे और यदि उभयात्मक सर्वज्ञके धर्म हैं; तो अनैकान्तिक हो जायँगे ? ___ उत्तर–'सर्वज्ञ' को धर्मी नहीं बनाते हैं, किन्तु धर्मी 'कश्चिदात्मा' 'कोई आत्मा' है, जो प्रसिद्ध है / 'किसी आत्मामें सर्वज्ञता होनी चाहिए, क्योंकि पूर्णज्ञान आत्माका स्वभाव है और प्रतिबन्धक कारण हट सकते हैं, इत्यादि अनुमानप्रयोगोंमें 'आत्मा' को ही धर्मी बनाया जाता है, अतः उक्त दोष नहीं आते / प्रश्न-सर्वज्ञके साधक और बाधक दोनों प्रकारके प्रमाण नहीं मिलते, अतः संशय हो जाना चाहिए? उत्तर-सर्वज्ञके साधक प्रमाण ऊपर बताये जा चुके हैं और बाधक प्रमाणोंका निराकरण भी किया जा चुका है, अतः सन्देहकी बात बेबुनियाद है। त्रिकाल Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy