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________________ 218 जैनदर्शन उत्तर-विवक्षाका वक्तृत्वसे कोई अविनाभाव नहीं है। मन्दबुद्धि शास्त्रको विवक्षा होनेपर भी शास्त्रका व्याख्यान नहीं कर पाता। सुषुप्त और मच्छित आदि अवस्थाओंमें विवक्षा न रहनेपर भी वचनोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है / अतः विवक्षा और वचनोंमें कोई अविनाभाव नहीं बैठाया जा सकता / चैतन्य और इन्द्रियोंकी पटुता ही वचनप्रवृत्तिमें कारण है और इनका सर्वज्ञत्वसे कोई विरोध नहीं है। अथवा, वचनोंमें विवक्षाको कारण मान भी लिया जाय पर सत्य और हितकारक वचनोंको उत्पन्न करनेवाली विवक्षा सदोष कैसे हो सकती है ? फिर, तीर्थंकरके तो पूर्व पुण्यानुभावसे बँधी हुई तीर्थंकर प्रकृतिके उदयसे वचनोंकी प्रवृत्ति होती है। जगत्के कल्याणके लिए उनकी पुण्यदेशना होती है। ____ इसी तरह निर्दोष वीतरागी पुरुषत्वका सर्वज्ञातासे कोई विरोध नहीं है। पुरुष भी हो जाय और सर्वज्ञ भी। यदि इस प्रकारके व्यभिचारी अर्थात् अविनाभावशून्य हेतुओंसे साध्यकी सिद्धि की जाती है; तो इन्हीं हेतुओंसे जैमिनिमें वेदज्ञताका भी अभाव सिद्ध किया जा सकेगा। प्रश्न-हमें किसी भी प्रमाणसे सर्वज्ञ उपलब्ध नहीं होता, अतः अनुपलम्भ होनेसे उसका अभाव ही मानना चाहिये ? उत्तर-पूर्वोक्त अनुमानोंसे जब सर्वज्ञ सिद्ध हो जाता है तब अनुपलम्भ कैसे कहा जा सकता है ? यह अनुपलम्भ आपको है या सबको ? 'हमारे चित्तमें जो विचार है' उनका अनुपलम्भ आपको है, पर इससे हमारे चित्तके विचारोंका अभाव तो नहीं हो जायगा। अतः स्वोपलम्भ अनैकान्तिक है। दुनियाँमें हमारे द्वारा अनुपलब्ध असंख्य पदार्थों का अस्तित्व है ही। 'सबको सर्वज्ञका अनुपलम्भ है' यह बात तो सबके ज्ञानोंको जाननेवाला सर्वज्ञ ही कह सकता है, असर्वज्ञ नहीं। अतः सर्वानुपलम्भ असिद्ध ही है। प्रश्न-ज्ञानमें तारतम्य देखकर कहीं उसके अत्यन्त प्रकर्षकी सम्भावना करके जो सर्वज्ञ सिद्ध किया जाता है उसमें प्रकर्षताकी एक सीमा होती है। कोई ऊँचा कूदनेवाला व्यक्ति अभ्याससे तो दस हाथ ही ऊँचा कूँद सकता है, वह चिर अभ्यासके बाद भी एक मील ऊँचा तो नहीं कँद सकता ? ___ उत्तर-कूदनेका सम्बन्ध शरीरकी शक्तिसे है, अतः उसका जितना प्रकर्ष सम्भव है, उतना ही होगा। परन्तु ज्ञानकी शक्ति तो अनन्त है। वह ज्ञानावरणसे आवृत होनेके कारण अपने पूर्णरूपमें विकसित नहीं हो पा रही है। ध्यानादि साधनाओंसे उस आगन्तुक आवरणका जैसे-जैसे क्षय किया जाता है वैसे-वैसे ज्ञानकी स्वरूपज्योति उसी तरह प्रकाशमान होने लगती हैं जैसा कि मेघोंके हटने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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