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________________ प्रमाणमीमांसा 217 अतीन्द्रिय पदार्थोंका स्पष्ट भान करा देती है; उसी तरह अतीन्द्रियज्ञान भी स्पष्ट प्रतिभासक होता है। ___आचार्य वीरसेन स्वामीने जयधवला टीकामें केवलज्ञानको सिद्धिके लिए एक नवीन ही युक्ति दी है / वे लिखते हैं कि केवलज्ञान ही आत्माका स्वभाव है / यही केवलज्ञान ज्ञानावरणकर्मसे आवृत होता है और आवरणके क्षयोपशमके अनुसार मतिज्ञान आदिके रूपमें प्रकट होता है। तो जब हम मतिज्ञान आदिका स्वसंवेदन करते हैं तब उस रूपसे अंशी केवलज्ञानका भी अंशतः स्वसंवेदन हो जाता है / जैसे पर्वतके एक अंशको देखने पर भी पूर्ण पर्वतका व्यवहारतः प्रत्यक्ष माना जाता है उसी तरह मतिज्ञानादि अवयवोंको देखकर अवयवीरूप केवलज्ञान यानी ज्ञानसामान्यका प्रत्यक्ष भी स्वसंवेदनसे हो जाता है। यहाँ आचार्यने केवलज्ञानको ज्ञानसामान्य रूप माना है और उसकी सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे की है। ___ अकलंकदेवने अनेक साधक प्रमाणोंको बताकर जिस एक महत्त्वपूर्ण हेतुका प्रयोग किया है वह है'-'सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणत्व' अर्थात् बाधक प्रमाणोंकी असंभवताका पूर्ण निश्चय होना / किसी भी वस्तुको सत्ता सिद्ध करनेके लिये यही 'बाधकाऽभाव' स्वयं एक बलवान् साधक प्रमाण हो सकता है। जैसे 'मैं सुखी हूँ' यहाँ सुखका साधक प्रमाण यही हो सकता है कि मेरे सुखी होनेमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है। चूंकि सर्वज्ञको सत्तामें भी कोई बाधक प्रमाण नहीं है / अतः उसकी निर्बाध सत्ता होनी चाहिये / इस हेतुके समर्थनमें उन्होंने प्रतिवादियोंके द्वारा कल्पित बाधाओंका निराकरण इस प्रकार किया है- प्रश्न-अर्हन्त सर्वज्ञ नहीं हैं, क्योंकि वे वक्ता हैं और पुरुष हैं। जैसे कोई गलीमें घूमनेवाला आवारा आदमी / उत्तर-वक्तृत्व और सर्वज्ञत्वका कोई विरोध नहीं है। वक्ता भी हो सकता है और सर्वज्ञ भी। यदि ज्ञानके विकासमें वचनोंका ह्रास देखा जाता तो उसके अत्यन्त विकासमें वचनोंका अत्यन्त ह्रास होतः, पर देखा तो उससे उलटा ही जाता है। ज्यों-ज्यों ज्ञानकी वृद्धि होती है त्यों-त्यों वचनोंमें प्रकर्षता ही आती है। प्रश्न-वक्तृत्वका सम्बन्ध विवक्षासे है, अतः इच्छारहित निर्मोही सर्वज्ञमें वचनोंकी संभावना कैसे है ? 1. “अस्ति सर्वज्ञः सुनिश्चितासंभवद्बाधक्रप्रमाणत्वात् मुखादिवत् / " -सिद्धिवि० टी० लि० पृ० 421 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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