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________________ 216 जैनदर्शन वाले पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माको यथावत् विश्लेषण करके जानता है वह उन शक्तियोंके उपयोगस्थानभूत अनन्तपदार्थोंको भी जान ही लेता है; क्योंकि अनन्तज्ञेय तो उस ज्ञानके विशेषण हैं और विशेष्यका ज्ञान होनेपर विशेषणका ज्ञान अवश्य हो ही जाता है। जैसे जो व्यक्ति घटप्रतिबिम्बवाले दर्पणको जानता है वह घटको भी जानता है और जो घटको जानता है वही दर्पणमें आये हुए घटके प्रतिबिम्बका वास्तविक विश्लेषणपूर्वक यथावत् परिज्ञान कर सकता है। 'जो एकको जानता है वह सबको जानता है' इसका यही रहस्य है। समन्तभद्र आदि आचार्योने सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों का प्रत्यक्षत्व' अनुमेयत्व हेतुसे सिद्ध किया है। बौद्धोंकी तरह किसी भी जैनग्रन्थमें धर्मशता और सर्वज्ञताका विभाजन कर उनमें गौण-मुख्यभाव नहीं बताया है। सभी जैन ताकिकोंने एक स्वरसे त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोके पूर्ण परिज्ञानके अर्थमें सर्वज्ञताका समर्थन किया है। धर्मज्ञता तो उक्त पूर्ण सर्वज्ञताके गर्भ में ही निहित मान ली गई है। अकलंकदेवने सर्वज्ञताका समर्थन करते हुए लिखा है कि आत्मामें समस्त पदार्थोके जानने की पूर्ण सामर्थ्य है / संसारी अवस्थामें उसके ज्ञानका ज्ञानावरणसे आवृत होनेके कारण पूर्ण प्रकाश नहीं हो पाता, पर जब चैतन्यके प्रतिबन्धक कर्मोंका पूर्ण क्षय हो जाता है, तब उस अप्राप्यकारी ज्ञानको समस्त अर्थोके जाननेमें क्या बाधा है ? यदि अतीन्द्रिय पदार्थोंका ज्ञान न हो सके, तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहोंकी ग्रहण आदि भविष्यत दशाओंका उपदेश कैसे हो सकेगा ? ज्योतिर्ज्ञानोपदेश अविसंवादी और यथार्थ देखा जाता है / अतः यह मानना ही चाहिये कि उसका यथार्थ उपदेश अतीन्द्रियार्थदर्शनके बिना नहीं हो सकता। जैसे सत्यस्वप्नदर्शन इन्द्रियादिकी सहायताके बिना ही भावी राज्यलाभ आदिका यथार्थ स्पष्ट ज्ञान कराता है तथा विशद है, उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी भावी पदार्थों में संवादक और स्पष्ट होता है। जैसे प्रश्नविद्या या ईक्षणिकादिविद्या 1. 'सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा / अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वशसंस्थितिः // ' -आप्तमी० श्लो० 5 / 2. देखो, न्याय वि० श्लो० 465 / 3. 'धीरत्यन्तपरोक्षेऽर्थे न चेत्पुंसां कुतः पुनः / ज्योतिर्शानाविसंवादः श्रुताच्चेत्साधनान्तरम् // ' __-सिद्धिवि० टी० लि. पृ० 413 / न्यायवि० श्लोक 414 / 4. देखो, न्यायविनिश्चय श्लोक 407 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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