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________________ प्रमाणमीमांसा 215 एक आत्माको जानता है वह सब पदार्थोंको जानता है, इत्यादि वाक्य, जो सर्वज्ञताके मुख्य साधक नहीं हैं, पाये जाते हैं, पर तर्कयुगमें इनका जैसा चाहिए वैसा उपयोग नहीं हुआ। आचार्य कुन्दकुन्दने नियमसारके शुद्धोपयोगाधिकार ( गाथा 158 ) में लिखा है कि 'केवली भगवान् समस्त पदार्थोंको जानते और देखते हैं' यह कथन व्यवहारनयसे है। परन्तु निश्चयसे वे अपने आत्मस्वरूपको ही देखते और जानते हैं। इससे स्पष्ट फलित होता है कि केवलीकी परपदार्थज्ञता व्यावहारिक है, नैश्चयिक नहीं। व्यवहारनयको अभूतार्थ और निश्चयनयको भूतार्थपरमार्थ स्वीकार करनेकी मान्यतासे सर्वज्ञताका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञतामें ही होता है। यद्यपि उन्हीं कुन्दकुन्दाचार्यके अन्य ग्रन्थोंमें सर्वज्ञताके व्यावहारिक अर्थका भी वर्णन और समर्थन देखा जाता है, पर उनकी निश्चयदृष्टि आत्मज्ञताकी सोमाको नहीं लाँघती। इन्हीं आ० कुन्दकुन्दने प्रवचनसार में सर्वप्रथम केवलज्ञानको त्रिकालवर्ती समस्त अर्थोंका जाननेवाला लिखकर आगे लिखा है कि जो अनन्तपर्यायवाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह सबको कैसे जानता है ? और जो सबको नहीं जानता वह अनन्तपर्यायवाले एक द्रव्यको पूरी तरह कैसे जान सकता है ? इसका तात्पर्य यह है कि जो मनुष्य घटज्ञानके द्वारा घटको जानता है वह घटके साथ-ही-साथ घटज्ञानके स्वरूपका भी संवेदन कर ही लेता है, क्योंकि प्रत्येक ज्ञान स्वप्रकाशी होता है। इसी तरह जो व्यक्ति घटको जाननेकी शक्ति रखनेवाले घटज्ञानका यथावत् स्वरूपपरिच्छेद करता है वह घटको तो अर्थात् ही जान लेता है, क्योंकि उस शक्तिका यथावत् विश्लेषणपूर्वक परिज्ञान विशेषणभूत घटको जाने बिना हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार आत्मामें अनन्तज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति है। अतः जो संसारके अनन्तज्ञेयोंको जानता है वह अनन्तज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति रखनेवाले पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माको जान ही लेता है और जो अनन्तज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति१. 'जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं / केवलणाणो जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं // ' 2. 'जं तक्कालियमिदरं जाणदि जुगवं समंतदो सव्वं / अत्थं विचित्तविसमं तं णाणं खाइयं भणियं // जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तिक्कालिगे तिहुवणत्थे। णादु तस्स ण सक्कं सवज्जयगं दव्वमेगं वा // दव्वं अणंतपज्जयमेगमणंताणि दव्वजादाणि / ण विजाणादि जदि जुगवं कधं सो सव्वाणि जाणादि // ' -प्रवचनसार 1 / 47-49 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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