________________ प्रमाणमीमांसा 213 आ० कुमारिल स्पष्ट लिखते हैं कि सर्वज्ञत्वके निषेधसे हमारा तात्पर्य केवल धर्मज्ञत्वके निषेधसे है। यदि कोई पुरुष धर्मके सिवाय संसारके अन्य समस्त अर्थोंको जानना चाहता है, तो भले ही जाने, हमें कोई आपत्ति नहीं, पर धर्मका ज्ञान केवल वेदके द्वारा ही होगा, प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे नहीं। इस तरह धर्मको वेदके द्वारा तथा धर्मातिरिक्त शेष पदार्थोंको यथासम्भव अनुमानादि प्रमाणोंसे जानकर यदि कोई पुरुष टोटलमें सर्वज्ञ बनता है तब भी कोई विरोध नहीं है। दूसरा पक्ष बौद्धका है। ये बुद्धको धर्म-चतुरार्यसत्यका साक्षात्कारकर्ता मानते हैं। इनका कहना है कि बुद्धने अपने भास्वर ज्ञानके द्वारा दुःख, समुदयदुःखके कारण, निरोध-निर्वाण, मार्ग-निर्वाणके उपाय इस चतुरार्यसत्यरूप धर्मका प्रत्यक्ष दर्शन किया है। अतः धमके विषयमें धर्मद्रष्टा सुगत ही अन्तिम प्रमाण हैं। वे करुणा करके कषायज्वालासे झुलसे हुए संसारी जीवोंके उद्धारकी भावनासे उपदेश देते हैं। इस मतके समर्थक धर्मकीर्तिने लिखा है कि 'संसारके समस्त पदार्थोंका कोई पुरुष साक्षात्कार करता है या नहीं, हम इस निरर्थक बातके झगड़ेमें नहीं पड़ना चाहते / हम तो यह जानना चाहते हैं कि उसने इष्ट तत्त्वधर्मको जाना है कि नहीं ? मोक्षमार्गमें अनुपयोगी दुनियाँ भरके कीड़े-मकोड़ों आदि की संख्याके परिज्ञानका भला मोक्षमार्गसे क्या सम्बन्ध है ? धर्मकीर्ति सर्वज्ञताका सिद्धान्ततः विरोध नहीं करके उसे निरर्थक अवश्य बतलाते हैं। वे सर्वज्ञताके समर्थकोंसे कहते हैं कि मीमांसकोंके सामने सर्वज्ञता-त्रिकाल-त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थोंका प्रत्यक्षसे ज्ञान-पर जोर क्यों देते हो ? असली विवाद तो धर्मज्ञतामें है कि धर्मके विषयमें धर्मके साक्षात्कर्ताको प्रमाण माना जाय या वेदको ? उस धर्ममार्गके साक्षात्कारके लिये धर्मकीर्तिने आत्मा ( ज्ञानप्रवाह) से दोषोंका अत्यन्तोच्छेद माना और नैरात्म्यभावना आदि उसके साधन बताये / 1. धर्मशत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते / सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते // -तत्त्वसं० का० 3128 ( कुमारिलके नामसे उद्धृत ) 2. 'तस्मादनुष्ठेयगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् / कोटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते // 33 // दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु / प्रमाणं दूरदर्शी चेदेतान् गृद्धानुपास्महे // 35 // -प्रमाणवा० 1133,35 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org