________________ 212 जैनदर्शन केवलज्ञान: समस्त ज्ञानावरणके समूल नाश होनेपर प्रकट होनेवाला निरावरण ज्ञान केवलज्ञान है / यह आत्ममात्रसापेक्ष होता है और केवल अर्थात् अकेला होता है। इस ज्ञानके उत्पन्न होते ही समस्त क्षायोपशमिक ज्ञान विलीन हो जाते हैं। यह समस्त द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती सभी पर्यायोंको जानता है तथा अतीन्द्रिय होता है। यह सम्पूर्ण रूपसे निर्मल होता है। इसके सिद्ध करनेकी मूल युक्ति यह है कि आत्मा जब ज्ञानस्वभाव है और आवरणके कारण इसका यह ज्ञानस्वभाव खंड- खंड करके प्रकट होता है तब सम्पूर्ण आवरणके हट जानेपर ज्ञानको अपने पूर्णरूप में प्रकाशमान होना ही चाहिए। जैसे अग्निका स्वभाव जलानेका है। यदि कोई प्रतिबन्ध न हो तो अग्नि ईंधनको जलायगी ही। उसी तरह ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकोंके हट जाने पर जगत्के समस्त पदार्थोंको जानेगा ही। 'जो पदार्थ किसी ज्ञानके ज्ञेय हैं, किसी-न-किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं / जैसे पर्वतीय अग्नि' इत्यादि अनेक अनुमान उस निरावरण ज्ञानकी सिद्धिके लिए दिये जाते हैं / सर्वज्ञताका इतिहास : प्राचीनकालमें भारतवर्षकी परम्पराके अनुसार सर्वज्ञताका सम्बन्ध भी मोक्षके ही साथ था। मुमुक्षुओंमें विचारणीय विषय तो यह था कि मोक्षके मार्गका किसने साक्षात्कार किया ? यही मोक्षमार्ग धर्म शब्दसे निर्दिष्ट होता है। अतः विवादका विषय यह रहा कि धर्मका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं ? एक पक्षका, जिसके अनुगामी शबर, कुमारिल आदि मीमांसक हैं, कहना था कि धर्म जैसी अतीन्द्रिय वस्तुओंको हमलोग प्रत्यक्षसे नहीं जान सकते / धर्मके सम्बन्धमें वेदका ही अन्तिम और निर्बाध अधिकार है। धर्मकी परिभाषा "चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः" करके धर्ममें वेदको ही प्रमाण कहा है। इस धर्मज्ञानमें वेदको ही अन्तिम प्रमाण मानने के कारण उन्हें पुरुषमें अतीन्द्रियार्थविषयक ज्ञानका अभाव मानना पड़ा। उन्होंने पुरुषमें राग, द्वेष और अज्ञान आदि दोषोंकी शंका होनेसे अतीन्द्रियधर्मप्रतिपादक वेदंको पुरुषकृत न मानकर अपौरुषेय माना। इस अपौरुषेयत्वकी मान्यतासे ही पुरुषमें सर्वज्ञताका अर्थात् प्रत्यक्षसे होनेवाली धर्मज्ञताको निषेध हुआ। 1. "ज्ञस्यावरणविच्छदे शेयं किमवशिष्यते ?" -न्यायवि० श्लो० 465 / "ज्ञो शेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धके। दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यादसति प्रतिबन्धके // " --उद्धृत अष्टसह० पृ० 50 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org