________________ 210 जैनदर्शन रजतम्' यहाँ 'इदम्' शब्द सामने रखे हुए पदार्थका निर्देश करता है और 'रजतम्' पूर्वदृष्ट रजतका स्मरण है। सादृश्यादि दोषोंके कारण वह स्मरण अपने 'तत्' आकारको छोड़कर उत्पन्न होता है। यही उसकी विपर्ययरूपता है। यदि यहाँ 'तद्रजतम्' ऐसा प्रतिभास होता; तो वह सम्यग्ज्ञान ही हो जाता। अतः ‘इदम्' यह एक स्वतंत्र ज्ञान है और 'रजतम्' यह अधूरा स्मरण / चूंकि दोनोंका भेद ज्ञात नहीं होता, अतः 'इदं के साथ 'रजतम्' जुटकर 'इदं रजतम्' यह एक ज्ञान मालूम होने लगता है। किन्तु यह उचित नहीं है; क्योंकि यहाँ दो ज्ञान प्रतिभासित ही नहीं होते / एक ही ज्ञान सामने रखे हुए चमकदार पदार्थको विषय करता है / विशेष बात यह है कि वस्तुदर्शनके अनन्तर तद्वाचक शब्दकी स्मृतिके समय विपरीतविशेषका स्मरण होकर वही प्रतिभासित होने लगता है। उस समय चमचमाहटके कारण शुक्तिकाके विशेष धर्म प्रतिभासित न होकर उनका स्थान रजतके धर्म ले लेते हैं। इस तरह विपर्ययज्ञानके बनने में सामान्यका प्रतिभास, विशेषका अप्रतिभास और विपरीत विशेषका स्मरण ये कारण भले ही हों, पर विपर्ययकालमें 'इदं रजतम्' यह एक ही ज्ञान रहता है। और वह विपरीत आकारको विषय करनेके कारण विपरीतख्यातिरूप ही है। संशयका स्वरूप : संशय ज्ञानमें जिन दो कोटियोंमें ज्ञान चलित या दोलित रहता है, वे दोनों कोटियाँ भी बुद्धिनिष्ठ ही हैं। उभय साधारण पदार्थके दर्शनसे परस्पर विरोधी दो विशेषोंका स्मरण हो जानेके कारण ज्ञान दोनों कोटियोंमें झूलने लगता है। यह निश्चित है कि संशय और विपर्ययज्ञान पूर्वानुभूत विशेषके ही होते हैं / अननुभूतके नहीं। ___ संशय ज्ञानमें प्रथम ही सामने विद्यमान स्थाणुके उच्चत्व आदि सामान्यधर्म प्रतिभासित होते हैं, फिर उसके पुरुष और स्थाणु इन दो विशेषोंका युगपत् स्मरण आ जानेसे ज्ञान दोनों कोटियोंमें दोलित हो जाता है / 2. पारमार्थिक प्रत्यक्ष : पारमार्थिक प्रत्यक्ष सम्पूर्ण रूपसे विशद होता है। वह मात्र आत्मासे उत्पन्न होता है। इन्द्रिय और मनके व्यापारकी उसमें आवश्यकता नहीं होती / वह दो प्रकारका है-एक सकलप्रत्यक्ष और दूसरा विकलप्रत्यक्ष / केवलज्ञान सकलप्रत्यक्ष है और अवधिज्ञान तथा मनःपर्ययज्ञान विकलप्रत्यक्ष हैं / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org