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________________ प्रमाणमीमांसा 209 हुआ करती है / आत्माकी तरह बाह्य पदार्थका अस्तित्व भी स्वतःसिद्ध और परमार्थसत् ही है। अतः बाह्यार्थका निषेध करके नित्य ब्रह्म या क्षणिक ज्ञानका प्रतिभास कहना भी सयुक्तिक नहीं है। विपर्यय ज्ञानके कारण : विपर्यय ज्ञानके अनेक कारण होते हैं; वात-पित्तादिका क्षोभ, विषयकी चंचलता, किसी क्रियाका अतिशीघ्र होना, सादृश्य और इन्द्रियविकार आदि / इन दोषोंके कारण मन और इन्द्रियोंमें विकार उत्पन्न होता है और इन्द्रियमें विकार होनेसे विपर्ययादि ज्ञान होते हैं। अन्ततः इन्द्रियविकार ही विपर्ययका मुख्य हेतु सिद्ध होता है। अनिर्वचनीयार्थख्याति नहीं: विपर्यय ज्ञानको सत्, असत् आदिरूपसे अनिर्वचनीय कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि उसका विपरीतरूपमें निर्वचन किया जा सकता है / 'इदं रजतम्' यह शब्दप्रयोग स्वयं अपनी निर्वचनीयता बता रहा है। पहले देखा गया रजत ही सादृश्यादिके कारण सामने रखी हुई सीपमें झलकने लगता है। अख्याति नहीं: ___ यदि विपर्यय ज्ञानमें कुछ भी प्रतिभासित न हो, वह अख्याति अर्थात् निर्विषय हो; तो भ्रान्ति और सुषुप्तावस्थामें कोई अन्तर ही नहीं रह जायगा / सुषुप्तावस्थासे भ्रान्तिदशाके भेदका एक हो कारण है कि भ्रान्ति अवस्थामें कुछ तो प्रतिभासित होता है, जबकि सुषुप्तावस्थामें कुछ भी नहीं / असरख्याति नहीं: यदि विपर्ययमें असत् पदार्थका प्रतिभास माना जाता है, तो विचित्र प्रकारकी भ्रान्तियाँ नहीं हो सकेंगी, क्योंकि असत्ख्यातिवादीके मतमें विचित्रताका कारण ज्ञानगत या अर्थगत कुछ भी नहीं है। सामने रखी हुई वस्तुभूत शुक्तिका ही इस ज्ञानका आलम्बन है, अन्यथा अंगुलिके द्वारा उसका निर्देश नहीं किया जा सकता था / यद्यपि यहाँ रजत अविद्यमान है, फिर भी इसे असत्ख्याति नहीं कह सकते; क्योंकि इसमें सादृश्य कारण पड़ रहा है, जबकि असत्ख्यातिमें सादृश्य कारण नहीं होता। विपर्ययज्ञान स्मृति-प्रमोष : विपर्ययज्ञानको इस रूपसे स्मृतिप्रमोषरूप कहना भी ठीक नहीं है कि 'इदं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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