________________ 208 जैनदर्शन आदि इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले अवग्रहादि मात्र रूपादि गुणोंको ही नहीं जानते, किन्तु उन गुणोंके द्वारा 'द्रव्यको ग्रहण करते हैं; क्योंकि गुण और गुणीमें कथञ्चित् अभेद होनेसे गुणका ग्रहण होने पर गुणीका भी ग्रहण उस रूपमें हो ही जाता है। किसी ऐसे इन्द्रियज्ञानकी कल्पना नहीं की जा सकती, जो द्रव्यको छोड़कर मात्र गुणको, या गुणको छोड़कर मात्र द्रव्यको ग्रहण करता हो / विपर्यय आदि मिथ्याज्ञानविपर्यय ज्ञान का स्वरूप : इन्द्रियदोष तथा सादृश्य आदिके कारण जो विपर्यय ज्ञान होता है, वह जैन दर्शनमें विपरीत-ख्यातिके रूपसे स्वीकार किया गया है। किसी पदार्थमें उससे विपरीत पदार्थका प्रतिभास होना विपरीत-ख्याति कहलाती है। यह पदार्थ विपरीत है' इस प्रकारका प्रतिभास विपर्ययकालमें नहीं होता है। यदि प्रमाताको यह मालूम हो जाय कि 'यह पदार्थ विपरीत है' तब तो वह ज्ञान यथार्थ ही हो जायगा। अतः पुरुषसे विपरीत स्थाणुमें 'पुरुष' इस प्रकारकी ख्याति अर्थात् प्रतिभास विपरीतख्याति कहलाता है / यद्यपि विपर्ययकालमें पुरुष वहाँ नहीं है, परन्तु सादृश्य आदिके कारण पूर्वदृष्ट पुरुषका स्मरण होकर उसमें पुरुषका भान होता है और यह सब होता है इन्द्रियदोष आदिके कारण। इसमें अलौकिक, अनिर्वचनीय, असत्, सत् या आत्माका प्रतिभास मानना या इस ज्ञानको निरालम्बन हो मानना प्रतीतिविरुद्ध है। विपर्ययज्ञानका आलम्बन तो वह पदार्थ है ही जिसमें सादृश्य आदिके कारण विपरीत भान हो रहा है और जो विपरीत पदार्थ उसमें प्रतिभासित हो रहा है / वह यद्यपि वहाँ विद्यमान नहीं है, किन्तु सादृश्य आदिके कारण स्मरणका विषय बनकर झलक तो जाता ही है। अन्ततः विपर्ययज्ञानका विषयभूत पदार्थ विपर्ययकालमें आलम्बनभूत पदार्थमें आरोपित किया जाता है और इसीलिए वह विपर्यय है। असत्ख्याति और आत्मख्याति नहीं : विपर्ययकालमें सीपमें चाँदी आ जाती है, यह निरी कल्पना है; क्योंकि यदि उस कालमें चाँदी आती हो, तो वहाँ बैठे हुए पुरुषको दिख जानी चाहिये / रेतमें जलज्ञानके समय यदि जल वहाँ आ जाता है, तो पीछे जमीन तो गीली मिलनी चाहिये। मानसभ्रान्ति अपने मिथ्या संस्कार और विचारोंके अनुसार अनेक प्रकारको 1. तत्त्वार्थसूत्र 1117 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org