________________ प्रमाणमीमांसा 205 है, अतः मन किसी भी बाह्य पदार्थको संयुक्तसंयोग आदि सम्बन्धोंसे जानता है / मन अपने सुख का साक्षात्कार संयुक्तसमवायसम्बन्धसे करता है। मन आत्मासे संयुक्त है और आत्मामें सुखका समवाय है, इस तरह चक्षु और मन दोनों प्राप्यकारी हैं। परन्तु निम्नलिखित कारणोंसे चक्षुका पदार्थके साथ सन्निकर्ष सिद्ध नहीं होता (1) 'यदि चक्ष प्राप्यकारी है तो उसे स्वयंमें लगे हुए अंजनको देख लेना चाहिए / (2) यदि चक्षु प्राप्यकारी है तो वह स्पर्शन इन्द्रियकी तरह समीपवर्ती वृक्षकी शाखा और दूरवर्ती चन्द्रमाको एक साथ नहीं देख सकती। ( 3 ) यह कोई आवश्यक नहीं है कि जो कारण हो वह पदार्थसे संयुक्त होकर ही अपना काम करे। चुम्बक दूरसे ही लोहेको खींच लेता है / ( 4 ) चक्षु अभ्रक, काँच और स्फटिक आदिसे व्यवहित पदार्थोंके रूपको भी देख लेती है, जब कि प्राप्यकारी स्पर्शनादि इन्द्रियाँ उनके स्पर्श आदिको नहीं जान सकतीं / चक्षुको तेजोद्रव्य कहना भी प्रतीतिविरुद्ध है; क्योंकि एक तो तेजोद्रव्य स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है, दूसरे उष्ण स्पर्श और भास्वर रूप इसमें नहीं पाया जाता। चक्षुको प्राप्यकारी माननेपर पदार्थमें दूर और निकट व्यवहार नहीं हो सकता / इसी तरह संशय और विपर्यय ज्ञान भी नहीं हो सकेंगे। आजका विज्ञान मानता है कि आँख एक प्रकारका केमरा है। उसमें पदार्थोंकी किरणें प्रतिबिम्बित होती हैं। किरणोंके प्रतिबिम्ब पड़नेसे ज्ञानतन्तु उबुद्ध होते हैं और फिर चक्ष उन पदार्थोंको देखती है। चक्षुमें आये हुए प्रतिबिम्बका कार्य केवल चेतनाको उद्बुद्ध कर देना है। वह स्वयं दिखाई नहीं देता। इस प्रणालीमें यह बात तो स्पष्ट है कि चक्षुने योग्य देशमें स्थित पदार्थको ही जाना है, अपने में पड़े हुए प्रतिबिम्बको नहीं। पदार्थोके प्रतिबिम्ब पड़नेकी क्रिया तो केवल स्विचको दबानेकी क्रियाके समान है, जो विद्युत् शक्तिको प्रवाहित कर देता है / अतः इस प्रक्रियासे जैनोंके चक्षुको अप्राप्यकारी माननेके विचारमें कोई विशेष बाधा उपस्थित नहीं होती। श्रोत्र अप्राप्यकारी नहीं : ___२बौद्ध श्रोत्रको भी अप्राप्यकारी मानते हैं। उनका विचार है कि-शब्द भी दूरसे ही सुना जाता है / वे चक्षु और मनके साथ श्रोत्रके भी अप्राप्यकारी होनेका 1. देखो, तत्त्वार्थवार्तिक पृ० 68 / 2, 'अप्राप्तान्यक्षिमनःश्रोत्राणि।' -अभिधर्मकोश 1143 / तत्त्वसंग्रह. पं० पृ० 603 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org