________________ 206 जैनदर्शन स्पष्ट निर्देश करते हैं। यदि श्रोत्र प्राप्यकारी होता तो शब्दमें दूर और निकट व्यवहार नहीं होना चाहिए था / किन्तु 'जब श्रोत्र कानमें घुसे हुए मच्छरके शब्दको सुन लेता है, तो अप्राप्यकारी नहीं हो सकता। प्राप्यकारी घ्राण इन्द्रिय के विषयभूत गन्धमें भी 'कमलकी गन्ध दूर है, मालतीकी गन्ध पास है' इत्यादि व्यवहार देखा जाता है। यदि चक्षुकी तरह श्रोत्र भी अप्राप्यकारी है तो जैसे रूपमें दिशा और देशका संशय नहीं होता उसी तरह शब्दमें भी नहीं होना चाहिए था, किन्तु शब्दमें 'यह किस दिशासे शब्द आया है ?' इस प्रकारका संशय देखा जाता है। अतः श्रोत्रको भी स्पर्शनादि इन्द्रियोंकी तरह प्राप्यकारी ही मानना चाहिए / जब शब्द वातावरणमें उत्पन्न होता हुआ क्रमशः कानके भीतर पहुँचता है, तभी सुनाई देता है / श्रोत्रका शब्दोत्पत्तिके स्थानमें पहुँचना तो नितान्त बाधित है। ज्ञानका उत्पत्ति-क्रम, अवग्रहादिभेद : सांव्यवहारिक इन्द्रियप्रत्यक्ष चार भागोंमें विभाजित है-अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा। सर्वप्रथम विषय और विषयीके सन्निपात ( योग्यदेशावस्थितिमें ) होनेपर दर्शन होता है। यह दर्शन सामान्य-सत्ताका आलोचक होता है। इसके आकारको हम मात्र 'है' के रूपमें निर्दिष्ट कर सकते हैं / यह अस्तित्वरूप महासत्ता या सामान्य-सत्ताका प्रतिभास करता है। इसके बाद उस विषयकी अवान्तरसत्ता ( मनुष्यत्व आदि ) से युक्त वस्तुका ग्रहण करनेवाला 'यह पुरुष है' ऐसा अवग्रह ज्ञान होता है। अवग्रह ज्ञानमें पुरुषत्वविशिष्ट पुरुषका स्पष्ट बोध होता है / जो इन्द्रियाँ प्राप्यकारा हैं, उनके द्वारा दर्शनके बाद सर्वप्रथम व्यंजनावग्रह होता है। जिस प्रकार कोरे घड़ेमें जब दो, तीन, चार जलबिन्दुएँ तुरन्त सूख जाती हैं, तव कहीं घड़ा धीरे-धीरे गीला होता है, उसी तरह व्यंजनावग्रहमें पदार्थका अव्यक्त बोध होता है। इसका कारण यह है कि प्राप्यकारी स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियाँ अनेक प्रकारकी उपकरण-त्वचाओंसे आवृत रहती हैं, अतः उन्हें भेदकर इन्द्रिय तक विषय-सम्बन्ध होनेमें एक क्षण तो लग ही जाता है / अप्राप्यकारी चक्षुकी उपकरणभूत पलके आँखके तारेके ऊपर हैं और पलकें खुलने के बाद ही देखना प्रारम्भ होता है। आँख खुलनेके बाद पदार्थके देखने में अस्पृष्टताकी गुंजाइश नहीं रहती / जितनी शक्ति होगी, उतना स्पष्ट ही दिखेगा। अतः चक्षुइन्द्रियसे व्यञ्जनावग्रह नहीं होता / व्यञ्जनावग्रह शेष चार इन्द्रियोंसे ही होता है। __ अवग्रहके बाद उसके द्वारा ज्ञात विषयमें 'यह पुरुष दक्षिणी है या उत्तरी ?' इस प्रकारका विशेषविषयक संशय होता है। संशयके अनन्तर भाषा और वेशको 1. देखो, तत्वार्थवार्तिक पृ० 68-36 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org