________________ 204 जैनदर्शनं मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध इन पर्यायोंका निर्देश मिलता है / इनमें मति, इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान है। इसकी उत्पत्तिमें ज्ञानान्तरकी आवश्यकता नहीं होती / आगेके स्मृति, संज्ञा, चिन्ता आदि ज्ञानोंमें क्रमशः पूर्वानुभव, स्मरण और प्रत्यक्ष, स्मरण, प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञान, लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरण आदि ज्ञानान्तरोंकी अपेक्षा रहती है, जब कि इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षमें कोई भी अन्य ज्ञान अपेक्षित नहीं होता। इसी विशेषताके कारण इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षरूपी मतिको संव्यवहारप्रत्यक्षका पद मिला है। 1. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष : पाँच इन्द्रियाँ और मन इन छह कारणोंसे संव्यवहारप्रत्यक्ष उत्पन्न होता है। इसके मूल दो भेद हैं ( 1 ) इन्द्रियसंव्यवहारप्रत्यक्ष, ( 2 ) अनिन्द्रियसंव्यवहारप्रत्यक्ष / अनिन्द्रियप्रत्यक्ष केवल मनसे उत्पन्न होता है, जब कि इन्द्रियप्रत्यक्षमें इन्द्रियोंके साथ मन भी कारण होता है। इन्द्रियोंको प्राप्यकारिता-अप्राप्यकारिता : __ 'इन्द्रियोंमें चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं अर्थात् ये पदार्थको प्राप्त किये बिना ही दूरसे ही उसका ज्ञान कर लेते हैं। स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ पदार्थोंसे सम्बद्ध होकर उन्हें जानती हैं। कान शब्दको स्पष्ट होनेपर सुनता है। स्पर्शनादि इन्द्रियाँ पदार्थोंके सम्बन्धकालमें उनसे स्पृष्ट भी होती हैं और बद्ध भी। बद्धका अर्थ है-इन्द्रियों में अल्पकालिक विकारपरिणति / जैसे अत्यन्त ठण्डे पानी में हाथ डुबानेपर कुछ कालतक हाथ ऐसा ठिठुर जाता है कि उससे दूसरा स्पर्श शीघ्र गृहीत नहीं होता। किसी तेज गरम पदार्थको खा लेनेपर रसना भी विकृत होती हुई देखी जाती है। परन्तु कानसे किसी भी प्रकारके शब्द सुननेपर ऐसा कोई विकार अनुभवमें नहीं आता। सन्निकर्ष-विचार : नैयायिकादि चक्षुका भी पदार्थके साथ सन्निकर्ष मानते हैं। उनका कहना है कि चक्षु तैजस पदार्थ है। उसकी किरणें निकलकर पदार्थोंसे सम्बन्ध करती हैं और तब चक्षुके द्वारा पदार्थका ज्ञान होता है / चक्षु चूंकि पदार्थके रूप, रस आदि गुणों से केवल रूपको ही प्रकाशित करती है, अतः वह दीपककी तरह तैजस है। मन व्यापक आत्मासे संयुक्त होता है और आत्मा जगत्के समस्त पदार्थोंसे संयुक्त 1. 'पुढे सुणेइ सई अपुठं पुण वि पस्सदे रूवं / फासं रसं च गंधं बद्धं पुढे विजाणादि ॥'-आ० नि० गा० 5 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org