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________________ प्रमाणमीमांसा 203 परन्तु जैन दार्शनिक परम्परामें निराकार निर्विकल्पक दर्शनको प्रमाणकोटिसे बहिर्भूत ही रखा है और निश्चयात्मक सविकल्पक ज्ञानको ही प्रमाण मानकर विशदज्ञानको प्रत्यक्षकोटिमें लिया है। बौद्धका निर्विकल्पकज्ञान विषय-विषयीसन्निपातके अनन्तर होनेवाले सामान्यावभासी अनाकार दर्शनके समान है। यह अनाकार दर्शन इतना निर्बल होता है कि इससे व्यवहार तो दूर रहा किन्तु पदार्थका निश्चय भी नहीं हो पाता। अतः उसको स्पष्ट या प्रमाण मानना किसी भी तरह उचित नहीं है। विशदता और निश्चयपना विकल्पका अपना धर्म है और वह ज्ञानावरणके क्षयोपशमके अनुसार इसमें पाया जाता है। इसी अभिप्रायका सूचन करनेके लिए अकलंकदेवने 'अञ्जसा' और 'साकार' पद प्रत्यक्षके लक्षणमें दिये हैं / जिन विकल्पज्ञानोंका विषयभूत पदार्थ बाह्यमें नहीं मिलता वे विकल्पाभास हैं, प्रत्यक्ष नहीं। जैसे शब्दशून्य निर्विकल्पकसे शब्दसंसृष्ट विकल्प उत्पन्न हो जाता है वैसे यदि शब्दशन्य अर्थसे भी सीधा विकल्प उत्पन्न हो तो क्या बाधा है ? यद्यपि ज्ञानकी उत्पत्तिमें पदार्थकी असाधारण कारणता नहीं है। ____ज्ञात होता है कि वेदकी प्रमाणताका खण्डन करनेके विचारसे बौद्धोंने शब्दका अर्थके साथ वास्तविक सम्बन्ध ही नहीं माना और उन यावत् शब्दसंसृष्ट ज्ञानोंका, जिनका समर्थन निर्विकल्पकसे नहीं होता, अप्रामाण्य घोषित कर दिया है, और उन्हीं ज्ञानोंको प्रमाण माना है, जो साक्षात् या परम्परासे अर्थसामर्थ्यजन्य हैं। परन्तु शब्दमात्रको अप्रमाण कहना उचित नहीं है। वे शब्द भले ही अप्रमाण हों, जिनका विषयभूत अर्थ उपलब्ध नहीं होता। जब आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष माना और अक्ष शब्दका अर्थ आत्मा किया गया, तब लोकव्यवहारमें प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध इन्द्रियप्रत्यक्ष और मानसप्रत्यक्षकी समस्याका समन्वय जैन दार्शनिकोंने एक 'संव्यवहारप्रत्यक्ष' मानकर किया। विशेषावश्यकभाष्य' और लघीयस्त्रयः ग्रन्थोंमें इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञानको संव्यवहार प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। इसके कारण भी ये हैं कि एक तो लोकव्यवहारमें तथा सभी इतर दर्शनोंमें यह प्रत्यक्षरूपसे प्रसिद्ध है और प्रत्यक्षताके प्रयोजक वैशद्य (निर्मलता) का अंश इसमें पाया जाता है / इस तरह उपचारका कारण मिलनेसे इन्द्रियप्रत्यक्षमें प्रत्यक्षताका उपचार कर लिया गया है। वस्तुतः आध्यात्मिक दृष्टिमें ये ज्ञान परोक्ष ही है / तत्त्वार्थसूत्र ( 1 / 13 ) में मतिज्ञानकी 1. 'इन्दियमणोभवं जं तं संववहारपच्चक्खं ।'—विशेषा० गा० 65 / 2. 'तत्र सांव्यवहारिकम् इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् / ' -लघो० स्ववृ० श्लोक०४ / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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