________________ प्रमाणमीमांसा वेदको स्वतः प्रामाण्य माननेके सिद्धान्तने मीमांसकको शब्दमात्रके नित्य माननेकी ओर प्रेरित किया; क्योंकि यदि शब्दको अनित्य माना जाता है तो शब्दात्मक वेदको भी कभी न कभी किसी वक्ताके मुखसे उत्पन्न हुआ मानना पड़ेगा, जो कि उसकी स्वतः प्रमाणताका विघातक सिद्ध हो सकता है। वक्ताके मुखसे एकान्ततः जन्म लेनेवाले सार्थक भाषात्मक शब्दोंको भी नित्य और अपौरुषेय कहना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है। परम्परा और सन्ततिकी दृष्टिसे भले ही भाषात्मक शब्द अनादि हो जाँय, पर तत्तत्समयोंमें उत्पन्न होनेवाले शब्द तो उत्पत्तिके बाद ही नष्ट हो जाते हैं / शब्द तो जलकी लहरके समान पौद्गलिक वातावरणमें उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं, अतः उन्हें नित्य नहीं माना जा सकता / फिर उस वेदको, जिसमें अनेक राजा, ऋषि, नगर, नदी और देश आदि अनित्य और सादि पदार्थोके नाम आते हैं, नित्य, अनादि और अपौरुषेय कहकर स्वतः प्रमाण कैसे माना जा सकता है ? प्रमाणता या अप्रमाणता सर्वप्रथम तो परतः ही गृहीत होती है, आगे परिचय और अभ्यासके कारण भले ही वे अवस्थाविशेषमें स्वतः हो जायँ / गुण और दोष दोनों वस्तुके ही धर्म हैं। वस्तु या तो गुणात्मक होती है या दोषात्मक / अतः गुणको ‘स्वरूप' कहकर उसका अस्तित्व नहीं उड़ाया जा सकता। दोनोंकी स्थिति बराबर होती है / यदि काचकामलादि दोष हैं तो निर्मलता चक्षुका गुण है / अतः गुण और दोष रूप कारणोंसे उत्पन्न होनेके कारण प्रमाणता और अप्रमाणता दोनों ही परतः मानी जानी चाहिए। प्रमाणसंप्लव-विचार : एक ही प्रमेयमें अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्तिको 'प्रमाणसम्प्लव' कहते हैं / बौद्ध पदार्थोंको क्षणिक मानते हैं। उनका यह भी सिद्धान्त है कि ज्ञान अर्थजन्य होता है। जिस विवक्षित पदार्थसे कोई एक प्रत्यक्षज्ञान उत्पन्न हुआ है, वह पदार्थ दूसरे क्षणमें नियमसे नष्ट हो जाता है, इसलिए किसी भी अर्थमें दो ज्ञानोंकी प्रवृत्तिका अवसर ही नहीं है। बौद्धोंने प्रमेयके दो भेद किये हैं-एक विशेष ( स्वलक्षण) और दूसरा सामान्य (अन्यापोह ) / विशेषपदार्थको विषय करनेवाला प्रत्यक्ष है और सामान्यको जाननेवाले अनुमानादि विकल्पज्ञान / इस तरह प्रमेयद्वैविध्यसे प्रमाण द्वैविध्यकी नियत व्यवस्था होनेसे कोई भी प्रमाण जब अपनी विषयमर्यादाको नहीं लाँघ सकता, तब विजातीय प्रमाणकी तो स्वनियत विषयसे भिन्न प्रमेयमें 1. 'मानं द्विविधं विषयद्वैविध्यात् ।'--प्रमाणबा० 2 / 1 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org