________________ 198 जैनदर्शन आचार्य शान्तरक्षित ने बौद्धोंका पक्ष 'अनियमवाद' के रूपमें रखा है। वे कहते हैं---'प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वतः, दोनों परतः, प्रामाण्य स्वतः अप्रामाण्य परतः और अप्रामाण्य स्वतः प्रामाण्य परतः' इन चार नियम पक्षोंसे अतिरिक्त पाँचवाँ 'अनियम पक्ष' भी है जो प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनोंको अवस्थाविशेषमें स्वतः और अवस्थाविशेषमें परतः माननेका है। यही पक्ष बौद्धोंको इष्ट है। दोनोंको स्वतः माननेका पक्ष 'सर्वदर्शनसंग्रह'२ में सांख्यके नामसे तथा अप्रामाण्यको स्वतः और प्रामाण्यको परतः माननेका पक्ष बौद्धके नामसे उल्लिखित है, पर उनके मूल ग्रंथोंमें इन पक्षोंका उल्लेख नहीं मिलता। नैयायिक दोनोंको परतः४ मानते हैं-संवादसे प्रामाण्य और बाधकप्रत्ययसे अप्रामाण्य आता है / जैन जिस वक्ताके गुणोंका प्रत्यय है उसके वचनोंको तत्काल स्वतःप्रमाण कह भी दें, पर शब्दकी प्रमाणता गुणोंसे ही आती है, यह सिद्धान्त निरपवाद है / अन्य प्रमाणोंमें अभ्यास और अनभ्याससे प्रामाण्य और अप्रामाण्यके स्वतः और परतःका निश्चय होता है / मीमांसक यद्यपि प्रमाणकी उत्पत्ति कारणोंसे मानता है पर उसका अभिप्राय यह है कि जिन कारणोंसे ज्ञान उत्पन्न होता है उससे अतिरिक्त किसी अन्य कारणको, प्रमाणताकी उत्पत्तिमें अपेक्षा नहीं होती। जैनका कहना है कि इन्द्रियादि कारण या तो गुणवाले होते हैं या दोषवाले; क्योंकि कोई भी सामान्य अपने विशेषोंमें ही प्राप्त हो सकता है। कारण-सामान्य भी या तो गुणवान् कारणोंमें मिलेगा या दोषवान् कारणोंमें। अतः यदि दोषवान् कारणोंसे उत्पन्न होनेके कारण अप्रामाण्य परतः माना जाता है तो गुणवान् कारणोंसे उत्पन्न होनेसे प्रामाण्यको भी परतः ही मानना चाहिये। यानी उत्पत्ति चाहे प्रामाण्यकी हो या अप्रामाण्यकी, हर हालतमें वह परतः ही होगी। जिन कारणोंसे प्रमाण या अप्रमाण पैदा होगा, उन्हीं कारणोंसे उनकी प्रमाणता और अप्रमाणता भी उत्पन्न हो ही जाती है। प्रमाण और प्रमाणताकी उत्पत्तिमें समयभेद नहीं है। ज्ञप्ति और प्रवृत्तिके सम्बन्धमें कहा जा चुका है कि वे अभ्यास दशामें स्वतः और अनभ्यास दशामें परतः होती हैं। 1. 'न हि बौद्धरेषां चतुर्णामेकतमोऽपि पक्षोऽभीष्टः, अनियमपक्षस्येष्टत्वात् / तथाहि-उभयमप्येतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति पूर्वमुपवर्णितम् / अत एव पक्षचतुष्टयोपन्यासोऽप्ययुक्तः / पञ्चमस्य अनियमपक्षस्य संभवात् / ' -तत्त्वसं० 50 का० 3123 / 2. 'प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।' –सर्वद० पृ० 279 / 3. 'सौगताश्चरमं स्वतः।' –सर्व पृ० 279 / 4. 'द्वयमपि परतः इत्येष एव पक्षः श्रेयान् / ' -न्यायमं० पृ० 174 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org