SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमाणमीमांसा 193 ज्ञानको प्रमाण या अप्रमाण कहनेका क्या आधार माना जाय ?' इस प्रश्नका उत्तर यह है कि ज्ञानोंकी प्रायः साधारण स्थिति होनेपर भी जिस ज्ञानमें अविसंवादकी बहुलता हो उसे प्रमाण माना जाय तथा विसंवादकी बहुलतामें अप्रमाण / जैसे कि इत्र आदिके पुद्गलोंमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रहने पर भी गन्ध गुणकी उत्कटताके कारण उन्हें 'गन्ध द्रव्य' कहते हैं, उसी तरह अविसंवादकी बहुलतासे प्रमाणव्यवहार हो जायगा। अकलंकदेवके इस विचारका एक ही कारण मालूम होता है कि उनके मतसे इन्द्रियजन्य क्षायोपशमिक ज्ञानोंकी स्थिति पूर्ण विश्वसनीय नहीं मानी जा सकती। स्वल्पशक्तिक इन्द्रियोंकी विचित्र रचनाके कारण इन्द्रियोंके द्वारा प्रतिभासित पदार्थ अन्यथा भी होता है। यही कारण है कि आगमिक परम्परामें इन्द्रिय और मनोजन्य मतिज्ञान और श्रुतज्ञानको प्रत्यक्ष न कहकर परोक्ष ही कहा गया है / अकलंकदेवके इस विचारको उत्तरकालीन दार्शनिकोंने अपनाया हो, यह नहीं मालूम होता, पर स्वयं अकलंक इस विचारको आप्तमीमांसाकी टीका अष्टशती', लघीयस्त्रयस्ववृत्तिरे और सिद्धिविनिश्चयमें दृढ़ विश्वासके साथ उपस्थित करते हैं। तदाकारता प्रमाण नहीं: बौद्ध परंपरामें ज्ञानको स्वसंवेदो स्वीकार तो किया है परन्तु प्रमाके कारणके रूपमें सारूप्य तदाकारता या योग्यताका निर्देश मिलता है / ज्ञानगत योग्यता या ज्ञानगत सारूप्य अन्ततः ज्ञानस्वरूप ही है, अतः परिणमनमें कोई विशेष अन्तर न होने पर भी ज्ञानका पदार्थाकार होना एक पहेली ही है / 'अमूर्तिक ज्ञान मूर्तिक 1. 'येनाकारेण तत्त्वपरिच्छेदः तदपेक्षया प्रामाण्यमिति / तेन प्रत्यक्षतदाभासयोरपि प्रायशः संकीर्णप्रामाण्येतरस्थितिरुन्नेतव्या / प्रसिद्धानुपहतेन्द्रियदृष्टेरपि चन्द्रार्कादिषु देशप्रत्यासत्याद्यभूताकारावभासनात् / तथोपहताक्षादेरपि संख्यादिविसंवादेऽपि चन्द्रादिस्वभावतत्त्वोपलम्भात् / तत्प्रकर्षापेक्षया व्यपदेशव्यवस्था गन्धद्रव्यादिवत् / -अष्टश०, अष्टसह० पृ० 277 / 2. "तिमिराद्य पप्लवशानं चन्द्रादावविसंवादकं प्रमाणं तथा तत्संख्यादौ विसंवादकत्वादप्रमाणं प्रमाणेतरव्यवस्थायास्तल्लक्षणत्वात् / " -लघी० स्व० श्लो० 23 / 3. “यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता / ' -सिद्धिवि० 1 / 20 / 4. "स्वसंवित्तिः फलं चात्र ताद्रपादर्थनिश्चयः / विषयाकार एवास्य प्रमाणं तेन मीयते ।"-प्रमाणसमु० पृ० 24 / "प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा।"-तत्त्वसं० श्लो० 1344 / 13 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy