________________ 192 जैनदर्शन विभिन्न लक्षण: __ इस तरह सामान्यतया जैन परम्परामें ज्ञानको ही प्रमाका करण माना है। वह प्रमाणज्ञान सम्पूर्ण वस्तुको ग्रहण करता है / उसमें ज्ञानसामान्यका स्वसंवेदित्व धर्म भी रहता है। प्रमाण होनेसे उसे अविसंवादी भी अवश्य ही होना चाहिए। विसंवाद अर्थात संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय / इन तीनों विसंवादोंसे रहित अविसंवादी सम्यग्ज्ञान प्रमाण होता है। आचार्य समन्तभद्र और सिद्धसेनके प्रमाणलक्षणमें 'स्वपरावभासक' पद प्रयुक्त हुआ है।३ समन्तभद्रने उस तत्त्वज्ञानको भी प्रमाण कहा है जो एक साथ सबका अवभासक होता है / इस लक्षणमें केवल स्वरूपका निर्देश है / अकलंक और माणिक्यनन्दिने प्रमाणको अनधिगतार्थग्राही और अपूर्वार्थव्यवसायी कहा है। परन्तु५ विद्यानन्दका स्पष्ट मत है कि ज्ञान चाहे अपूर्व पदार्थको जाने या गृहीत अर्थको, वह स्वार्थव्यवसायात्मक होनेसे प्रमाण ही है / गृहीतग्राहिता कोई दूषण नहीं है / अविसंवादको प्रायिक स्थिति : ___ अकलंकदेवने अविसंवादको प्रमाणताका आधार मान करके एक विशेष बात यह कही है कि हमारे ज्ञानोंमें प्रमाणता और अप्रमाणताकी संकीर्ण स्थिति है / कोई भी ज्ञान एकान्तसे प्रमाण या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। इन्द्रियदोषसे होनेवाला द्विचन्द्रज्ञान भी चन्द्रांशमें अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है, पर द्वित्व-अंशमें विसंवादी होनेके कारण अप्रमाण / पर्वतपर चन्द्रमाका दिखना चन्द्रांशमें ही प्रमाण है, पर्वतस्थितरूपमें नहीं। इस तरह हमारे ज्ञानोंमें ऐकान्तिक प्रमाणता या अप्रमाणताका निर्णय नहीं किया जा सकता। 'तब व्यवहारमें किसी 1. "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम् / " / -बृहत्स्व० श्लो० 63 / 2. “प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् / " ___-न्यायावता० श्लो० 1 / 3. "तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत् सर्वभासकम् / " –आप्तमी० श्लो० 101 / 4. “प्रमाणमविसंवादिशानमनधिंगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् / " -अष्टश०, अष्टसह० पृ० 175 / "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् / " -परीक्षामुख 1 / 1 / 5. "गृहीतमगृहीतं वा यदि स्वार्थ व्यवस्यति / तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् // " -तत्त्वार्थश्लो० 1 / 10 / 78 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org