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________________ प्रमाणमीमांसा अपने ज्ञानके द्वारा भी पदार्थका बोध नहीं हो सकेगा। जो ज्ञान अपने स्वरूपका ही प्रतिभास करने में असमर्थ है वह परका अवबोधक कैसे हो सकता है ?' स्वरूपकी दृष्टिसे सभी ज्ञान प्रमाण हैं / प्रमाणता और अप्रमाणताका विभाग बाह्य अर्थकी प्राप्ति और अप्राप्तिसे सम्बन्ध रखता है। स्वरूपकी दृष्टिसे तो न कोई ज्ञान प्रमाण है और न प्रमाणाभास / प्रमाण और नय: तत्त्वार्थसूत्र ( 116 ) में जिन अधिगमके उपायोंका निर्देश किया है उनमें प्रमाण और नयके निर्देश करनेका एक दूसरा कारण भी है। प्रमाण समग्र वस्तुको अखण्डरूपसे ग्रहण करता है / वह भले ही किसी एक गुणके द्वारा पदार्थको जाननेका उपक्रम करे, परन्तु उस गुणके द्वारा वह सम्पूर्ण वस्तुको ही ग्रहण करता है। आँखके द्वारा देखी जानेवाली वस्तु यद्यपि रूपमुखेन देखी जाती है, पर प्रमाणज्ञान रूपके द्वारा पूरी वस्तुको ही समग्रभावसे जानता है। इसीलिए प्रमाणको सकलादेशी कहते है / वह हर हालतमें सकल वस्तुका ही ग्राहक होता है। उसमें गौणमुख्यभाव इतना ही है कि वह भिन्न-भिन्न समयोंमें अमुक-अमुक इन्द्रियोंके ग्राह्य विभिन्न गुणोंके द्वारा पूरी वस्तुको जाननेका प्रयास करता है / जो गुण जिस समय इन्द्रियज्ञानका विषय होता है उस गुणकी मुख्यता इतनी ही है कि उसके द्वारा पूरी वस्तु गृहीत हो रही है। यह नहीं कि उसमें रूप मुख्य हो और रसादि गौण, किन्तु रूपके छोरसे समस्त वस्तुपट देखा जा रहा है। जब कि नयमें रूप मुख्य होता है और रसादि गौण / नयमें वही धर्म प्रधान बनकर अनुभवका विषय होता है, जिसकी विवक्षा या अपेक्षा होती है। नय प्रमाणके द्वारा गृहीत समस्त और अखण्ड वस्तुको खण्ड-खण्ड करके उसके एक-एक देशको मुख्यरूपसे ग्रहण करता है। प्रमाण घटको “घटोऽयम्'के रूपमें समग्र-का-समग्न जानता है जब कि नय "रूपवान् घटः" करके घड़ेको केवल रूपकी दृष्टिसे देखता है / ‘र पवान् घट:' इस प्रयोगमें यद्यपि एक रूपगुणकी प्रधानता दिखती है, परन्तु यदि इस वाक्यमें रूपके द्वारा पूरे घटको जाननेका अभिप्राय है तो यह वाक्य सकलादेशी है और यदि केवल घटके रूपको ही जाननेका अभिप्राय है तो वह मात्र रूपग्राही होनेसे विकलादेशी हो जाता है। 1. "भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिह्नवः / बहिःप्रमेयापेक्षायां प्रमाणं तन्निभं च ते // " -आप्तमी० श्लो० 83 / 2. "तथा चोक्तं सकलादेशः प्रमाणाधीनः" सर्वार्थसि० 106 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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