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________________ 190 जैनदर्शन कर्षादिके अभावमें भी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है / अतः जाननेरूप क्रियाका साक्षातअव्यवहित करण ज्ञान ही है, सन्निकर्षादि नहीं। प्रमिति या प्रमा अज्ञाननिवृत्तिरूप होती है। इस अज्ञाननिवृत्तिमें अज्ञानका विरोधी ज्ञान ही करण हो सकता है. जैसे कि अंधकारकी निवृत्तिमें अंधकारका विरोधी प्रकाश / इन्द्रिय', सन्निकर्षादि स्वयं अचेतन हैं, अत एव अज्ञानरूप होनेके कारण प्रमितिमें साक्षात् करण नहीं हो सकते। यद्यपि कहीं-कहीं इन्द्रिय-सन्निकर्षादि ज्ञानकी उत्पादक सामग्रीमें शामिल हैं, पर सार्वत्रिक और सार्वकालिक अन्वय-व्यतिरेक न मिलनेके कारण उनकी कारणता अव्याप्त हो जाती है / अन्ततः इन्द्रियादि ज्ञानके उत्पादक भी हों; फिर भी जानने रूप क्रियामें साधकत मता-अव्यवहितकारणता ज्ञानकी ही है, न कि ज्ञानसे व्यवहित इन्द्रियादिकी। जैसे कि अन्धकारकी निवृत्तिमें दीपक ही साधकतम हो सकता है, न कि तेल, बत्ती और दिया आदि / सामान्यतया जो किया जिस गुणकी पर्याय होती है उसमें वही गुण साधकतम हो सकता है / चूंकि 'जानाति क्रिया'जाननेरूप क्रिया ज्ञानगुणकी पर्याय है, अतः उसमें अव्यवहित करण ज्ञान ही हो सकता है। प्रमाण चूंकि हितप्राप्ति और अहितपरिहार करने में समर्थ है, अतः वह ज्ञान ही हो सकता है / __ज्ञानका सामान्य धर्म है अपने स्वरूपको जानते हुए परपदार्थको जानना / वह अवस्थाविशेषमें परको जाने या न जाने। पर अपने स्वरूपको तो हर हालतमें जानता ही है / ज्ञान चाहे प्रमाण हो, संशय हो, विपर्यय हो या अनध्यवसाय आदि किसी भी रूपमें क्यों न हो, वह बाह्यार्थमें विसंवादी होनेपर भी अपने स्वरूपको अवश्य जानेगा और स्वरूपमें अविसंवादी ही होगा। यह नहीं हो सकता कि ज्ञान घटपटादि पदार्थोकी तरह अज्ञात रूपमें उत्पन्न हो जाय और पीछे मन आदिके द्वारा उसका ग्रहण हो। वह तो दीपककी तरह जगमगाता हुआ ही उत्पन्न होता है। स्वसंवेदी होना ज्ञानसामान्यका धर्म है। अत: संशयादिज्ञानोंमें ज्ञानांशका अनुभव अपने आप उसी ज्ञानके द्वारा होता है। यदि ज्ञान अपने स्वरूपको न जाने, यानी वह स्वयंके प्रत्यक्ष न हो; तो उसके द्वारा पदार्थका बोध भी नहीं हो सकता। जैसे कि देवदत्तको यज्ञदत्तका ज्ञान अप्रत्यक्ष है अर्थात् स्वसंविदित नहीं है तो उसके द्वारा उसे अर्थका बोध नहीं होता। उसी तरह यदि यज्ञदत्तको स्वयं अपना ज्ञान उसी तरह अप्रत्यक्ष हो जिस प्रकार कि देवदत्तको है तो देवदत्तकी तरह यज्ञदत्तको 1. "सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमनुपपन्नमर्थान्तरवत् / " -लघी० स्त्रवृ० 1 / 3 / 2. “हिताहितप्राप्तिपरिहारसमर्थ हि प्रमाणं ततो शानमेव तत् / " --परीक्षामुख 112 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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