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________________ प्रमाणमीमांसा 189 आगमोंमें जो पाँच ज्ञानोंका वर्णन आता है वह ज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे या क्षयसे प्रकट होनेवाली ज्ञानकी अवस्थाओंका निरूपण है। आत्माके 'ज्ञान' गुणको एक ज्ञानावरणकर्म रोकता है और इसीके क्षयोपशमके तारतम्यसे मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय ये चार ज्ञान प्रकट होते हैं और सम्पूर्ण ज्ञानावरणका क्षय हो जाने पर निरावरण केवलज्ञानका आविर्भाव होता है। इसी तरह मतिज्ञानावरणकर्मके क्षयोपशमसे होनेवाली मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध आदि मतिज्ञान की अवस्थाओंका अनेक रूपसे विवेचन मिलता है.' जो मतिज्ञानके विविध आकार और प्रकारोंका निर्देश मात्र है / वह निर्देश भी तत्त्वाधिगम के उपयोगोंके रूपमें है। जिन तत्त्वोंका श्रद्धान और ज्ञान करके मोक्षमार्गमें जुटा जा सकता है उन तत्त्वोंका अधिगम ज्ञानसे ही तो संभव है। यही ज्ञान प्रमाण और नयके रूपसे अधिगमके उपायोंको दो रूपमें विभाजित कर देता है। यानी तत्त्वाधिगमके दो मूल भेद होते हैं-प्रमाण और नय / इन्हीं पाँच ज्ञानोंका प्रत्यक्ष और परोक्ष इन दो प्रमाणोंके रूपमें विभाजन भी आगमिक परम्परामें पहलेसे ही रहा है; किन्तु यहाँ प्रत्यक्षता और परोक्षताका आधार बिलकुल भिन्न है। जो ज्ञान स्वावलम्बी है-इन्द्रिय और मनकी सहायताकी भी अपेक्षा नहीं करता, वह आत्ममात्रसापेक्ष ज्ञान प्रत्यक्ष है और इन्द्रिय तथा मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान परोक्ष। इस तरह आगमिक क्षेत्रके सम्यक-मिथ्या विभाग और प्रत्यक्ष-परोक्ष विभागके आधार दार्शनिक क्षेत्रसे बिलकुल ही जुदे प्रकारके हैं। जैन दार्शनिकोंके सामने उपर्युक्त आगमिक परम्पराको दार्शनिक ढाँचेमें ढालनेका महान कार्यक्रम था, जिसे सुव्यवस्थित रूपमें निभानेका प्रयत्न किया गया है। प्रमाणका स्वरूप : प्रमाणका सामान्यतया व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-"प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान हो उस द्वारका नाम प्रमाण है। दूसरे शब्दोंमें जो प्रमाणका साधकतम करण हो वह प्रमाण है। इस सामान्यनिर्वचनमें कोई विवाद न होने पर भी उस द्वारमें विवाद हैं। नैयायिकादि प्रमामें साधकतम इन्द्रिय और सन्निकर्षको मानते हैं जब कि जैन और बौद्ध ज्ञानको ही प्रमामें साधकतम कहते हैं। जैनदर्शनकी दृष्टि है कि जानना या प्रमारूप क्रिया चुंकि चेतन है, अतः उसमें साधकतम उसीका गुण-ज्ञान ही हो सकता है, अचेतन सन्निकर्षादि नहीं, क्योंकि सन्निकर्षादिके रहने पर भी ज्ञान उत्पन्न नहीं होता और सन्नि 1. त० सू० 1113 / नन्दी प्र० मति० गा० 80 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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