________________ 188 जैनदशन प्रमाणादिव्यवस्थाका आधार : ज्ञान, प्रमाण और प्रमाणाभास इनकी व्यवस्था बाह्य अर्थके प्रतिभास करने, और प्रतिभासके अनुसार बाह्य पदार्थके प्राप्त होने और न होने पर निर्भर करती है। जिस ज्ञानका प्रतिभासित पदार्थ ठीक उसी रूपमें मिल जाय, जिस रूपमें कि उसका बोध हुआ है तो वह ज्ञान प्रमाण कहा जाता है अन्य प्रमाणाभास / यहाँ मुख्य प्रश्न यह है कि प्रमाणाभासोंमें जो 'दर्शन' गिनाया गया है वह क्या यही निराकार चैतन्यरूप दर्शन है ? जिस चैतन्यमें पदार्थका स्पर्श ही नहीं हुआ उस चैतन्यको ज्ञानकी विशेषकक्षा--प्रमाण और प्रमाणाभासमें दाखिल करना किसी तरह उचित नहीं है। ये व्यवहार तो ज्ञानमें होते हैं / दर्शन तो प्रमाण और प्रमाणाभाससे परेकी वस्तु है / विषय और विषयोके सन्निपातके बाद जो सामान्यावलोकनरूप दर्शन है वह तो बौद्ध और नैयायिकोंके निर्विकल्प ज्ञानकी तरह वस्तुस्पर्शी होनेसे प्रमाण और प्रमाणाभासकी विवेचनाके क्षेत्रमें आ जाता है / उस सामान्यवस्तुग्राही दर्शनको प्रमाणाभास इसलिए कहा है कि वह किसी वस्तुका व्यवसाय अर्थात् निर्णय नहीं करता। वह सामान्य अंशका भी मात्र आलोचन ही करता है; निश्चय नहीं। यही कारण है कि बौद्ध, नैयायिकादि-सम्मत निर्विकल्पको प्रमाणसे बहिर्भूत अर्थात् प्रमाणाभास माना गया है / ____ आगमिक क्षेत्रमें ज्ञानको सम्यक्त्व और मिथ्यात्व माननेके आधार जुदे हैं / वहाँ तो जो ज्ञान मिथ्यादर्शनका सहचारी है वह मिथ्या और जो सम्यग्दर्शनका सहभावी है वह सम्यक कहलाता है। यानी मिथ्यादर्शनवालेका व्यवहारसत्य प्रमाणज्ञान भी मिथ्या है और सम्यग्दर्शनवालेका व्यवहारमें असत्य अप्रमाण ज्ञान भी सम्यक है। तात्पर्य यह कि सम्यग्दृष्टिका प्रत्येक ज्ञान मोक्षमार्गोपयोगी होनेके कारण सम्यक है और मिथ्यादृष्टिका प्रत्येक ज्ञान संसारमें भटकानेवाला होनेसे मिथ्या है। परन्तु दार्शनिक क्षेत्रमें ज्ञानके मोक्षोपयोगी या संसारवर्धक होनेके आधारसे प्रमाणता-अप्रमाणताका विचार प्रस्तुत नहीं है। यहाँ तो प्रतिभासित विषयका अव्यभिचारी होना ही प्रमाणताकी कुञ्जी है। जिस ज्ञानका प्रतिभासित पदार्थ जैसा-का-तैसा मिल जाता है वह अविसंवादा ज्ञान सत्य है और प्रमाण है; शेष अप्रमाण हैं, भले ही उनका उपयोग संसारमें हो या मोक्षमें / 1. देखो, परीक्षामुख 6 / 1 / 2. “मतिश्रुतावधयो विपर्ययश्च"-त. सू० 1131 / 3. “यथा यत्राविसंवादस्तथा तत्र प्रमाणता।"-सिद्धिवि० 1120 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org