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________________ 194 जैनदर्शन पदार्थोके आकार कैसे होता है ?' इस प्रश्नका पुष्ट समाधान तो नहीं मिलता। ज्ञानके ज्ञेयाकार होनेका अर्थ इतना ही हो सकता है कि वह उस ज्ञेयको जाननेके लिए अपना व्यापार कर रहा है। फिर, किसी भी ज्ञानकी वह अवस्था, जिसमें ज्ञेयका प्रतिभास हो रहा है, प्रमाण ही होगी, यह निश्चित रूपसे नहीं कहा जा सकता / सीपमें चाँदीका प्रतिभास करनेवाला ज्ञान यद्यपि उपयोगकी दृष्टिसे पदार्थाकार हो रहा है, पर प्रतिभासके अनुसार वाह्यार्थको प्राप्ति न होनेके कारण उसे प्रमाण-कोटिमें नहीं डाला जा सकता। संशयादिज्ञान भी तो आखिर पदार्थाकार होते ही हैं। इस तरह जैनाचार्योंके द्वारा किये गये प्रमाणके विभिन्न लक्षणोंसे यह फलित होता है कि ज्ञानको स्वसंवेदी होना चाहिए। वह गृहीतग्राही हो या अपूर्वार्थग्राही, पर अविसंवादी होनेके कारण प्रमाण है। उत्तरकालीन जैन' आचार्योंने प्रमाणका असाधारण लक्षण करते समय केवल 'सम्यग्ज्ञान' और 'सम्यगर्थनिर्णय' यही पद पसन्द किये हैं। प्रमाणके अन्य लक्षणोंमें पाये जानेवाले निश्चित, बाधवजित, अदुष्टकारणजन्यत्व, लोकसम्मतत्व, अव्यभिचारी और व्यवसायात्मक आदि विशेषण 'सम्यक्' इस एक ही सर्वावगाही विशेषणपदसे गृहीत हो जाते हैं / अनिश्चित, बाधित, दुष्टकरणजन्य, लोकबाधित, व्यभिचारी, अनिर्णयात्मक, सन्दिग्ध, विपर्यय और अव्युत्पन्न आदि ज्ञान 'सम्यक्' की सीमाको नहीं छू सकते / सम्यग्ज्ञान तो स्वरूप और उत्पत्ति आदि सभी दृष्टियोंसे सम्यक् ही होगा। उसे अविसंवादी या व्यवसायात्मक आदि किसी शब्दसे व्यवहारमें ला सकते हैं। __ प्रमाणशब्द चंकि करणसाधन है, अतः कर्ता-प्रमाता, कर्म-प्रमेय और क्रिया-प्रमिति ये प्रमाण नहीं होते। प्रमेयका प्रमाण न होना तो स्पष्ट है / प्रमिति, प्रमाण और प्रमाता द्रव्यदृष्टिसे यद्यपि अभिन्न मालूम होते हैं, परन्तु पर्यायकी दृष्टिसे इन तीनोंका परस्पर में भेद स्पष्ट है / यद्यपि वही आत्मा प्रमितिक्रियामें व्यापत होनेके कारण प्रमाता कहलाता है और वह क्रिया प्रमिति: फिर भी प्रमाण आत्माका वह स्वरूप है जो प्रमितिक्रियामें साधकतम करण होता है। अतः प्रमाणविचारमें वही करणभूत पर्याय ग्रहण की जाती है। और इस तरह प्रमाणशब्दका करणार्थक ज्ञानपदके साथ सामानाधिकरण्य भी सिद्ध हो जाता है। 1. सम्यगर्थनिर्णयः प्रमाणम् ।"-प्रमाणमी० 1 / 1 / 2 / "सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् ।"-'यायदी० पृ० 3 / Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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