________________ 184 जैनदर्शन पापक्रियाओंका त्याग और समताभावको आराधना / छेदोपस्थापना-व्रतोंमें दूषण लग जानेपर दोषका परिहार कर पुनः व्रतोंमें स्थिर होना / परिहारविशुद्धि- इस चारित्रके धारक व्यक्तिके शरीरमें इतना हलकापन आ जाता है कि सर्वत्र गमन आदि प्रवृत्तियाँ करनेपर भी उसके शरीरसे जीवोंकी विराधना-हिंसा नहीं होती। सूक्ष्मसाम्पराय-समस्त क्रोधादिकषायोंका नाश होनेपर बचे हुए सूक्ष्म लोभके नाशकी भी तैयारी करना। यथाख्यात-समस्त कषायोंके क्षय होनेपर जीवन्मुक्त व्यक्तिका पूर्ण आत्मस्वरूपमें विचरण करना। इस तरह गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रसे कर्मशत्रुके आनेके द्वार बन्द हो जाते हैं / यही संवर है। 6. निर्जरा तत्त्व : ___ गुप्ति आदिसे सर्वतः संवृत–सुरक्षित व्यक्ति आगे आनेवाले कर्मोको तो रोक ही देता है, साथ ही पूर्वबद्ध कर्मोकी निर्जरा करके क्रमशः मोक्षको प्राप्त करता है। निर्जरा झड़नेको कहते हैं। यह दो प्रकार की है-एक औपक्रमिक या अविपाक निर्जरा और दूसरी अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा। तप आदि साधनाओंके द्वारा कर्मोंको बलात् उदयमें लाकर बिना फल दिये झड़ा देना अविपाक निर्जरा है। स्वाभाविक क्रमसे प्रतिसमय कर्मोका फल देकर झड़ते जाना सविपाक निर्जरा है। यह सविपाक निर्जरा प्रतिसमय हर एक प्राणीके होती ही रहती है। इसमें पुराने कर्मोंकी जगह नूतन कर्म लेते जाते हैं। गुप्ति, समिति और खासकर तपरूपी अग्निसे कर्मों को फल देनेके पहले ही भस्म कर देना अविपाक या औपक्रमिक निर्जरा है। 'कर्मोंकी गति टल ही नहीं सकती' यह एकान्त नियम नहीं है। आखिर कर्म हैं क्या ? अपने पुराने संस्कार ही वस्तुतः कर्म हैं। यदि आत्मामें पुरुषार्थ है, और वह साधना करे; तो क्षणमात्रमें पुरानी वासनाएँ क्षीण हो सकती हैं। "नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि।" अर्थात् 'सैकड़ों कल्पकाल बीत जानेपर भी बिना भोगे कर्मोंका नाश नहीं हो सकता।' यह मत प्रवाहपतित साधारण प्राणियोंको लागू होता है। पर जो आत्मपुरुषार्थी साधक हैं उनकी ध्यानरूपी अग्नि तो क्षणमात्रमें समस्त कर्मोको भस्म कर सकती है "ध्यानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते क्षणात्।" ऐसे अनेक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने अपनी साधनाका इतना बल प्राप्त कर लिया था कि साधु-दीक्षा लेते ही उन्हें कैवल्यकी प्राप्ति हो गई थी। पुरानी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org