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________________ तत्त्व-निरूपण 185 वासनाओं और राग, द्वेष तथा मोहके कुसंस्कारोंको नष्ट करनेका एक मात्र मुख्य साधन है—'ध्यान'-अर्थात् चित्तकी वृत्तियोंका निरोध करके उसे एकाग्र करना। इस प्रकार भगवान् महावीरने बन्ध ( दुःख ), बन्धके कारण ( आस्रव ), मोक्ष और मोक्षके कारण ( संवर और निर्जरा ) इन पाँच तत्त्वोंके साथ-ही-साथ उस आत्मतत्त्वके ज्ञानकी खास आवश्यकता बताई जिसे बन्धन और मोक्ष होता है / इसी तरह उस अजीव तत्त्वके ज्ञानकी भी आवश्यकता है जिससे बँधकर यह जीव अनादि कालसे स्वरूपच्युत हो रहा है / मोक्षके साधन : वैदिक संस्कृतिमें विचार या तत्त्वज्ञानको मोक्षका साधन माना है जब कि श्रमणसंस्कृति चारित्र अर्थात् आचारको मोक्षका साधन स्वीकार करती है / यद्यपि वैदिक संस्कृतिने तत्त्वज्ञानके साथ-ही-साथ वैराग्य और संन्यासको भी मुक्तिका अङ्ग माना है, पर वैराग्यका उपयोग तत्त्वज्ञानकी पुष्टिमें किया है, अर्थात वैराग्यसे तत्त्वज्ञान पुष्ट होता है और फिर उससे मुक्ति मिलती है। पर जैनतीर्थंकरोंने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः / " (त० सू० 1 / 1 ) सम्यग्दर्शन, सम्यरज्ञान और सम्यक चारित्रको मोक्षका मार्ग बताया है। ऐसा सम्यग्ज्ञान जो सम्यक्चारित्रका पोषक या वर्धक नहीं है, मोक्षका साधन नहीं होता। जो ज्ञान जीवनमें उतरकर आत्मशोधन करे, वही मोक्षका साधन है। अन्ततः सच्चो श्रद्धा और ज्ञानका फल चारित्र-शुद्धि ही है / ज्ञान थोड़ा भी हो, पर यदि वह जीवनशुद्धिमें प्रेरणा देता है तो सार्थक है। अहिंसा, संयम और तप साधनाएँ हैं, मात्र ज्ञानरूप नहीं हैं / कोरा ज्ञान भार ही है यदि वह आत्मशोधन नहीं करता। तत्त्वोंकी दृढ़ श्रद्धा अर्थात् सम्यग्दर्शन मोक्षमहलकी पहिली सीढ़ी है। भय, आशा, स्नेह और लोभसे जो श्रद्धा चल और मलिन हो जाती है वह श्रद्धा अन्धविश्वासकी सीमामें ही है / जीवन्त श्रद्धा वह है जिसमें प्राणों तककी बाजी लगाकर तत्त्वको कायम रखा जाता है। उस परम अवगाढ़ दृढ़ निष्ठाको दुनियाका कोई भी प्रलोभन विचलित नहीं कर सकता, उसे हिला नहीं सकता। इस ज्योतिके जगते ही साधकको अपने लक्ष्यका स्पष्ट दर्शन होने लगता है। उसे प्रतिक्षण भेदविज्ञान और स्वानुभूति होती है। वह समझता है कि धर्म आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें है, न कि शुष्क बाह्य क्रियाकाण्डमें / इसलिये उसकी परिणति एक विलक्षण प्रकारकी हो जाती है। आत्मकल्याण, समाजहित, देशनिर्माण और मानवताके उद्धारका स्पष्ट मार्ग उसकी आँखोंमें झूलता है और वह उसके लिये प्राणोंकी बाजी तक लगा देता है / स्वरूपज्ञान और स्वाधिकारकी मर्यादाका ज्ञान सम्यग्ज्ञान है। और Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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