________________ तत्त्व-निरूपण 183 नुसार भूखोंको भोजन, रोगीको औषध, अज्ञाननिवृत्तिके लिए ज्ञानके साधन जुटाना और प्राणिमात्रको अभय देना। देश और समाजके निर्माणके लिये, तन, धन आदिका त्याग / लाभ, पूजा और ख्याति आदिके उद्देश्यसे किया जानेवाला त्याग या दान उत्तम त्याग नहीं है। उत्तम आकिञ्चन्य-अकिञ्चनभाव, बाह्यपदार्थों में ममत्वका त्याग / धन-धान्य आदि बाह्य परिग्रह तथा शरीरमें यह मेरा नहीं है, आत्माका धन तो उसके चैतन्य आदि गुण हैं, 'नास्ति मे किंचन'मेरा कुछ नहीं, आदि भावनाएँ आकिञ्चन्य हैं। भौतिकतासे हटकर विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि प्राप्त करना / उत्तम ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वरूपमें विचरण करना / स्त्री-सुखसे विरक्त होकर समस्त शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शक्तियोंको आत्मविकासोन्मुख करना। मनकी शुद्धिके बिना केवल शारीरिक ब्रह्मचर्य न तो शरीरको ही लाभ पहुँचाता है और न मन तथा आत्मामें ही पवित्रता लाता है। अनुपेक्षा : सद्विचार, उत्तम भावनाएँ और आत्मचिन्तन अनुप्रेक्षा है / जगत्की अनित्यता, अशरणता, संसारका स्वरूप, आत्माका अकेला ही फल भोगना, देहको भिन्नता और उसकी अपवित्रता, रागादिभावोंकी हेयता, सदाचारको उपादेयता, लोकस्वरूपका चिन्तन और बोधिकी दुर्लभता आदिका बार-बार विचार करके चित्तको सुसंस्कारी बनाना, जिससे वह द्वन्द्व दशामें समताभाव रख सके / ये भावनाएँ चित्तको आस्रवकी ओरसे हटाकर संवरकी तरफ झुकाती हैं / परीषहजयः साधकको भूख, प्यास, ठंडी, गरमी, डाँस-मच्छर, चलने-फिरने-सोने आदिमें कंकड़, काँटे आदिकी बाधाएँ, बध, आक्रोश और मल आदिकी बाधाओंको शान्तिसे सहना चाहिए। नग्न रहकर भी स्त्री आदिको देखकर प्रकृतिस्थ बने रहना, चिरतपस्या करनेपर भी यदि ऋद्धि-सिद्धि नहीं होती तो तपस्याके प्रति अनादर नहीं होना और यदि कोई ऋद्धि प्राप्त हो जाय तो उसका गर्व नहीं करना, किसीके सत्कार-पुरस्कारमें हर्ष और अपमानमें खेद नहीं करना, भिक्षा-भोजन करते हुए भी आत्मामें दीनता नहीं आने देना इत्यादि परीषहोंके जयसे चारित्रमें दृढ़निष्ठा होती है और कर्मोंका आस्रव रुक कर संवर होता है। चारित्र : अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहका संपूर्ण परिपालन करना पूर्ण चारित्र है। चारित्रके सामायिक आदि अनेक भेद हैं। सामायिक-समस्त Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org