________________
जैनदर्शन
है, दूसरे शब्दों में आत्मसम्मान करता है, और साथ ही दूसरेके व्यक्तित्वको भी उतना ही सम्मान देता है, वही उपर्युक्त दुष्कर मार्गका अनुगामी बन सकता है । इसीलिये सारे नैतिक समुत्थानमें व्यक्तित्वका समादर एक मौलिक महत्त्व रखता है । जैनदर्शनके उपर्युक्त अनेकान्तदर्शनका अत्यन्त महत्त्व इसी सिद्धान्तके आधारपर है कि उसमें व्यक्तित्वका सम्मान निहित है ।
जहाँ व्यक्तित्वका समादर होता है वहाँ स्वभावतः साम्प्रदायिक संकीर्णता, संघर्ष या किसी भी छल, जाति, जल्प, वितण्डा आदि जैसे असदुपायसे वादिपराजयकी प्रवृत्ति नहीं रह सकती । व्यावहारिक जीवनमें भी खण्डनके स्थान में समन्वयात्मक निर्माणकी प्रवृत्ति ही वहाँ रहती है । साध्यकी पवित्रताके साथ साधक पवित्रताका महान् आदर्श भी उक्त सिद्धान्त के साथ ही रह सकता है । इस प्रकार अनेकान्तदर्शन नैतिक उत्कर्षके साथ-साथ व्यवहारशुद्धिके लिये भी जैनदर्शनकी एक महान् देन है ।
विचार-जगत्का अनेकान्तदर्शन ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसाके व्यापक सिद्धान्तका रूप धारण कर लेता है । इसीलिये जहाँ अन्य दर्शनोंमें परमतखण्डनपर बड़ा बल दिया गया है, वहीं जैनदर्शनका मुख्य ध्येय अनेकान्त-सिद्धान्तके आधारपर वस्तुस्थितिमूलक विभिन्न मतोंका समन्वय रहा है। वर्तमान जगत्की विचारधाराकी दृष्टिसे भी जैनदर्शनके व्यापक अहिंसामूलक सिद्धान्तका अत्यन्त महत्त्व है । आजकल जगत् की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अपने-अपने परम्परागत वैशिष्ट्यको रखते हुए भी विभिन्न मनुष्यजातियाँ एक-दूसरेके समीप आवें और उनमें एक व्यापक मानवताकी दृष्टिका विकास हो । अनेकान्तसिद्धान्तमूलक समन्वयकी दृष्टिसे ही यह हो सकता है ।
इसमें सन्देह नहीं कि न केवल भारतीय दर्शनके विकासका अनुगम करनेके लिये, अपितु भारतीय संस्कृति के उत्तरोत्तर विकासको समझने के लिये भी जैनदर्शनका अत्यन्त महत्त्व है । भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा परमतसहिष्णुतांके रूपमें अथवा समन्वयात्मक भावनाके रूपमें जैनदर्शन और जैन विचार - धाराकी जो देन है उसको समझे बिना वास्तवमें भारतीय संस्कृति के विकासको नहीं समझा जा सकता ।
१६
प्रस्तुत ग्रन्थ :
अभी तक राष्ट्रभाषा हिन्दी में कोई ऐसी पुस्तक नहीं थी, जिसमें व्यापक और तुलनात्मक दृष्टिसे जैनदर्शन के स्वरूपको स्पष्ट किया गया हो । बड़ी प्रसन्नताका विषय है कि इस बड़ी भारी कमीको प्रकृत पुस्तकके द्वारा उसके सुयोग्य विद्वान्
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org