________________
प्राक्कथन
लेखकने दूर कर दिया है। पुस्तककी शैली विद्वत्तापूर्ण है। उसमें प्राचीन मूल ग्रन्थोंके प्रमाणोंके आधारसे जैनदर्शनके सभी प्रमेयोंका बड़ी विशद रीतिसे यथासंभव सुबोध शैलीमें निरूपण किया गया है। विभिन्न दर्शनोंके सिद्धान्तोंके साथ तद्विषयक आधुनिक दृष्टियोंका भी इसमें सन्निवेश और उनपर प्रसङ्गानुसार विमर्श करनेका भी प्रयत्न किया गया है। पुस्तक अपनेमें मौलिक, परिपूर्ण और अनूठी है।। ..न्यायाचार्य आदि पदवियोंसे विभूषित प्रो० महेन्द्रकुमारजी अपने विषयके परिनिष्ठित विद्वान् है । जैनदर्शनके साथ तात्त्विक दृष्टिसे अन्य दर्शनोंका तुलनात्मक अध्ययन भी उनका एक महान् वैशिष्टय है । अनेक प्राचीन दुरूह दार्शनिक ग्रन्थोंका उन्होंने बड़ी योग्यतासे सम्पादन किया है । ऐसे अधिकारी विद्वान् द्वारा प्रस्तुत यह 'जैनदर्शन' वास्तव में राष्ट्रभाषा हिन्दीके लिये एक बहुमूल्य देन है। हम हृदयसे इस ग्रन्थका अभिनन्दन करते हैं ।
-मङ्गलदेव शास्त्री वाराणसी
एम०, ए०; डी. फिल ( ऑक्सन ), २०।१०।५५
पूर्व प्रिंसिपल गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, वाराणसी
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org