SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पदार्थका स्वरूप है । तात्पर्य यह है कि एक द्रव्यकी दो पर्यायोंमें अनुगत प्रत्यय ऊर्ध्वता' सामान्यसे होता है और व्यावृत्तप्रत्यय पर्याय नामके विशेषसे । दो विभिन्नि द्रव्योंमें अनुवृत्त प्रत्यय तिर्यक सामान्य ( सादृश्यास्तित्व ) से तथा व्यावृत्त प्रत्यय व्यतिरेक नामक विशेषसे होता है। सामान्यविशेषात्मक अर्थात् द्रव्यपर्यायात्मक : जगत्का प्रत्येक पदार्थ इस प्रकार सामान्य-विशेषात्मक है । पदार्थका सामान्यविशेषात्मक विशेषण धर्मरूप है जो अनुगत प्रत्यय और व्यावृत्त प्रत्ययका विषय होता है। पदार्थकी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मकता परिणमनसे सम्बन्ध रखती है । ऊपर जो सामान्य और विशेषको धर्म बताया है, वह तिर्यक् सामान्य और व्यतिरेक विशेषसे ही सम्बन्ध रखता है। द्रव्यके ध्रौव्यांशको ही ऊर्ध्वता सामान्य और उत्पाद-व्ययको ही पर्याय नामक विशेष कहते हैं। वर्तमानके प्रति अतीतका और भविष्यके प्रति वर्तमानका उपादान कारण होना, यह सिद्ध करता है कि तीनों क्षणोंकी अविच्छिन्न कार्यकारणपरंपरा है । प्रत्येक पदार्थको यह सामान्यविशेषात्मकता उसके अनन्तधर्मात्मकत्वका हो लघु स्वरूप है। तिर्यक सामान्यरूप सादृश्यकी अभिव्यक्ति यद्यपि परसापेक्ष है, किन्तु उसका आधारभूत प्रत्येक द्रव्य जुदा-जुदा है। यह उभयनिष्ठ न होकर प्रत्येकमें परिसमाप्त है। पदार्थ न तो केवल सामान्यात्मक ही है और न विशेषात्मक हो । यदि केवल ऊर्ध्वतासामान्यात्मक अर्थात् सर्वथा नित्य अविकारी पदार्थ स्वीकार किया जाता है तो वह त्रिकालमें सर्वथा एकरस, अपरिवर्तनशील और कूटस्थ बना रहेगा। ऐसे पदार्थमें कोई परिणमन न होनेसे जगत्के समस्त व्यवहार उच्छिन्न हो जायेंगे । कोई भी क्रिया फलवती नहीं हो सकेगी। पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्षादि व्यवस्था नष्ट हो जायगी । अतः उस वस्तुमें परिवर्तन तो अवश्य ही स्वीकार करना होगा। हम नित्यप्रति देखते हैं कि बालक दोजके चद्रमाके समान बढ़ता है, सीखता है और जीवन-विकासको प्राप्त कर रहा है। जड़ जगत्के विचित्र परिवर्तन तो हमारी आँखोंके सामने हैं। यदि पदार्थ सर्वथा नित्य हों तो उनमें क्रम या युगपत् किसी १. "परापरविवर्तव्यापि द्रव्यम् ऊर्ध्वता मृदिव स्थासादिषु ।”-परी० ४.५। २. “एकस्मिद् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्यायाः आत्मनि हर्षविषादादिवत् ।" -परी० ४।८। ३. “सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् ।"-- परी० ४।४ । ४. "अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गोमहिषादिवत् ।"-परीक्षामुख ४।९। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy