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जैनदर्शन
भी रूपसे कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी । और अर्थक्रियाके अभावमें उनकी सत्ता ही सन्दिग्ध हो जाती है ।
इसी तरह यदि पदार्थको पर्याय नामक विशेषके रूपमें ही स्वीकार किया जाय, अर्थात् सर्वथा क्षणिक माना जाय, याने पूर्वक्षणका उत्तरक्षणके साथ कोई सम्बन्ध स्वीकार न किया जाय तो देन-लेन, गुरु-शिष्यादि व्यवहार तथा बन्धमोक्षादि व्यवस्थाएँ समाप्त हो जायगी । न कारण- कार्यभाव होगा और न अर्थक्रिया ही । अतः पदार्थको ऊर्ध्वता सामान्य और पर्याय नामक विशेषके रूप में सामान्यविशेषात्मक यह द्रव्यपर्यायात्मक ही स्वीकार करना चाहिये ।
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