________________
१०६
जैनदर्शन
रूप ही, जैसा कि तत्त्वसंग्रहकी पञ्जिक (पृष्ठ २८४ ) में उद्धृत निम्नलिखित लोकसे फलित होता है
"चित्तमेव हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव तैर्विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥ | "
अर्थात् — रागादि क्लेशसे दूषित चित्त ही संसार है और रागादिसे रहित वीतराग चित्त ही भवान्त अर्थात् मुक्ति है ।
जब वही चित्त संसार अवस्थासे बदलता बदलता मुक्ति अवस्था में निरास्रव हो जाता है, तब उसकी परंपरारूप संततिको सर्वथा अवास्तविक नहीं कहा जा सकता । इस तरह द्रव्यका प्रतिक्षण पर्यायरूपसे परिवर्तन होने पर भी जो उसकी अनाद्यनन्त स्वरूपस्थिति है और जिसके कारण उसका समूलोच्छेद नहीं हो पाता, वह स्वरूपास्तित्व या ध्रौव्य है । यह काल्पनिक न होकर परमार्थसत्य है । इसीको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं ।
दो सामान्य :
दो विभिन्न द्रव्यों में अनुगत व्यवहार करानेवाला सादृश्यास्तित्व होता है, इसे तिर्यक् सामान्य या सादृश्यसामान्य कहते हैं । अनेक स्वतन्त्रसत्ताक द्रव्यों में 'गोः गौः ' या 'मनुष्यः मनुष्यः' इस प्रकारके अनुगत व्यवहारके किसी नित्य, एक और अनेकानुगत गोत्व या मनुष्यत्व नामके सामान्यको कल्पना करना उचित नहीं है; क्योंकि दो स्वतंत्र सत्तावाले द्रव्योंमें अनुस्यूत कोई एक पदार्थ हो ही नहीं सकता । वह उन दोनों द्रव्योंकी संयुक्त पर्याय तो कहा नहीं जा सकता; क्योंकि एक पर्याय दो अतिभिन्नक्षेत्रवर्ती द्रव्य उपादान नहीं होते । फिर अनुगत व्यवहार तो संकेतग्रहणके बाद होता है । जिस व्यक्तिने अनेक मनुष्योंमें बहुतसे अवयवोंकी समानता देखकर सादृश्य की कल्पना की है, उसीको उस सादृश्यके संस्कार के कारण 'मनुष्यः मनुष्य : ' ऐसी अनुगत प्रतीति होती है । अतः दो विभिन्न द्रव्यों में अनुगत प्रतीतिका कारणभूत सादृश्यास्तित्व मानना चाहिए, जो कि प्रत्येक द्रव्यमें परिसमाप्त होता है । ऊर्ध्वता सामान्य, जो स्वरूपास्तित्वरूप है, ऊपर कहा जा चुका है । इस तरह दो सामान्य हैं ।
दो विशेष :
इसी तरह एक द्रव्यकी पर्यायोंमें कालक्रमसे व्यावृत्त प्रत्यय करानेवाला पर्याय नामका विशेष है । दो द्रव्योंमें व्यावृत्त प्रत्यय करानेवाला व्यतिरेक नामका विशेष
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org