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________________ पदार्थका स्वरूप १०३ विवक्षितद्रव्य की व्यावृत्ति कराता है, वहाँ अपनी कालक्रमसे होनेवाली पर्यायोंमें अनुगत भी रहता है । इस स्वरूपास्तित्व से अपनी पर्यायोंमें अनुगत प्रत्यय उत्पन्न होता है, और इतर द्रव्योंसे व्यावृत्त प्रत्यय । इस स्वरूपास्तित्वको ऊर्ध्वता सामान्य कहते हैं । यही द्रव्य कहलाता है, क्योंकि यही अपनी क्रमिक पर्यायोंमें द्रवित होता है संततिपरंपरा से प्राप्त होता है । बौद्धोंकी संतति और इस स्वरूप । स्तित्वमें निम्नलिखित भेद विचारणीय है । स्वरूपा तित्व और सन्तान : जिस तरह जैन एक स्वरूपास्तित्व अर्थात् ध्रौव्य या द्रव्य मानते हैं, उसी तरह बौद्ध सन्तान स्वीकार करते हैं । प्रत्येक द्रव्य प्रतिक्षण अपनी अर्थ पर्याय रूपसे परिणमन करता है, उसमें ऐसा कोई भी स्थायी अंश नहीं बचता जो द्वितीय क्षणमें पर्यायोंके रूपमें न बदलता हो । यदि यह माना जाय कि उसका कोई एक अंश बिलकुल अपरिवर्तनशील रहता है, और कुछ अंश परिवर्तनशील; तो नित्य तथा क्षणिक दोनों पक्षोंमें दिये जानेवाले दोष ऐसी वस्तुमें आयँगे । कथंचित् तादात्म्य सम्बन्ध माननेके कारण पर्यायोंके परिवर्तित होने पर द्रव्यमें कोई अपरिवर्तिष्णु अंश बच ही नहीं सकता । अन्यथा उस अपरिवर्तिष्णु अंशसे तादात्म्य रखनेके कारण शेष अंश भी अपरिवर्तनशील ही सिद्ध होंगे । इस तरह कोई एक मार्ग ही पकड़ना होगा - या तो वस्तु नित्य मानी जाय, या बिलकुल परिवर्तनशील यानी चेतन वस्तु भी अचेतनरूपसे परिणमन करनेवाली । इन दोनों अन्तिम सीमाओं के मध्यका ही वह मार्ग है, जिसे हम द्रव्य कहते हैं । जो न बिलकुल अपरिवर्तनशील है और न इतना विलक्षण परिवर्तन करनेवाला, जिससे एक द्रव्य अपने द्रव्यत्वकी सीमाको लाँघकर दूसरे किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यरूप से परिणत हो जाय । सीधे शब्दों में धौव्यकी यही परिभाषा हो सकती है कि 'किसी एक द्रव्यके प्रतिक्षण परिणमन करते रहने पर भी उसका किसी सजातीय या विजातीय द्रव्यान्तररूपसे परिणमन नहीं होना ।' इस स्वरूपास्तित्वका नाम ही द्रव्य, ध्रौव्य, या गुण है । बौद्धोंके द्वारा मानी गई संतानका भी यही कार्य है । वह नियत पूर्वक्षणका नियत उत्तरक्षणके साथ ही समनन्तरप्रत्ययके रूपमें कार्यकारणभाव बनाता है, अन्य सजातीय या विजातीय क्षणान्तरसे नहीं । तात्पर्य यह है कि इस संतान के कारण एक पूर्वचेतनक्षण अपनी धाराके उत्तरचेतनक्षण के लिए ही समनन्तरप्रत्यय यानी उपादान होता है, अन्य चेतनान्तर या अचेतनक्षणका नहीं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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