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जैनदर्शन
इस तरह तात्त्विक दृष्टि से द्रव्य या संतानके कार्य या उपयोगमें कोई अन्तर नहीं है । अन्तर है तो केवल उसके शाब्दिक स्वरूपके निरूपणमें ।
बौद्ध' इस संतानको पंक्ति और सेना व्यवहारकी तरह 'मषा' कहते हैं । जैसे दस मनुष्य एक लाइनमें खड़े हैं और अमुक मनुष्य घोड़े आदि का एक समुदाय है, तो उनमें पंक्ति या सेना नामकी कोई एक अनुस्यूत वस्तु नहीं है, फिर भी उनमें पंक्ति और सेना व्यवहार हो जाता है, उसी तरह पूर्व और उत्तर क्षशोंमें व्यवहृत होनेवाली सन्तान भी 'मृषा' याने असत्य है। इस संतानकी स्थितिसे द्रव्यको स्थिति विलक्षण प्रकारकी है। वह किसी मनुष्यके दिमागमें रहनेवाली केवल कल्पना नहीं है, किन्तु क्षणकी तरह सत्य है। जैसे पंक्तिके अन्तर्गत दस भिन्न सत्तावाले पुरुषोंमें एक पंक्ति नामका वास्तविक पदार्थ नहीं है, फिर भी इस प्रकारके संकेतसे पंक्ति व्यवहार हो जाता है, उसी तरह अपनी क्रमिक पर्यायोंमें पाया जानेवाला स्वरूपास्तित्व भी सांकेतिक नहीं है, किन्तु परमार्थसत् है। 'मृषा' से सत्यव्यवहार नहीं हो सकता। बिना एक तात्त्विक स्वरूपास्तित्वके क्रमिक पर्यायें एक धारामें असंकरभावसे नहीं चल सकतीं। पंक्तिके अन्तर्गत एक पुरुष अपनी इच्छानुसार उस पंक्तिसे विच्छिन्न हो सकता है, पर कोई भी पर्याय चाहनेपर भी न तो अपने द्रव्यसे विच्छिन्न हो सकती है, और न द्रव्यान्तरमें विलीन ही, और न अपना क्रम छोड़कर आगे जा सकती है और न पीछे। संतानका खोखलापन : ___बौद्धके संतानकी अवास्तविकता और खोखलापन तब समझमें आता है, जब वे निर्वाणमें चित्तसंततिका समूलोच्छेद स्वीकार कर लेते हैं, अर्थात् सर्वथा अभाववादी निर्वाणमें यदि चित्त दीपककी तरह बुझ जाता है, तो वह चित्त एक दीर्घकालिक धाराके रूपमें ही रहनेवाला अस्थायी पदार्थ रहा । उसका अपना मौलिकत्व भी सार्वकालिक नहीं हुआ, किन्तु इस तरह एक स्वतंत्र पदार्थका सर्वथा उच्छेद स्वीकार करना युक्ति और अनुभव दोनोंसे विरुद्ध है। यद्यपि बुद्धने निर्वाणके स्वरूपके सम्बन्धमें अपना मौन रखकर इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें रखा था, किन्तु आगेके आचार्योंने उसकी प्रदीप-निर्वाणकी तरह जो व्याख्या की है, उससे निर्वाणका उच्छेदात्मक स्वरूप ही फलित होता है । यथा
१. “सन्तानः समुदायश्च पङ्क्तिसेनादिवन्मृषा।"
-बोधिचर्या० पृ० ३३४॥
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