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________________ जैनदर्शन हेतुत्व असाधारण गुण है। इनके साधारण गुण वस्तुत्व, सत्त्व, प्रमेयत्व और अभिधेयत्व आदि हैं । जीवमें ज्ञानादि गुणोंकी सत्ता और प्रतीति परनिरपेक्ष अर्थात् स्वाभाविक है, किन्तु छोटापन-बड़ापन, पितृत्व-पुत्रत्व और गुरुत्व-शिष्यत्व आदि धर्म परसापेक्ष हैं। यद्यपि इनकी योग्यता जीवमें है, पर ज्ञानादिके समान ये स्वरसतः गुण नहीं हैं। इसी तरह पुद्गलमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये तो स्वाभाविक-परनिरपेक्ष गुण हैं, परन्तु छोटापन, बड़ापन, एक, दो, तीन आदि संख्याएँ और संकेतके अनुसार होनेवाली शब्दवाच्यता आदि ऐसे धर्म हैं जिनकी अभिव्यक्ति व्यवहारार्थ होती है। एक ही पदार्थ अपनेसे भिन्न अनन्त दूर-दूरतर और दूरतम पदार्थोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारकी दूरी और समीपता रखता है। इसी तरह अपनेसे छोटे और बड़े अनन्त परपदार्थोंकी अपेक्षा अनन्त प्रकारका छोटापन और बड़ापन रखता है। पर ये सब धर्म चंकि परसापेक्ष प्रकट होनेवाले हैं, अतः इन्हें गुणोंकी श्रेणीमें नहीं रख सकते । गुणका लक्षण आचार्यने निम्नलिखित प्रकारसे किया है "गुण इति दव्वविहाणं दव्ववियारो य पज्जवो भणियो।" अर्थात्-गुण द्रव्यका विधान, यानी निज प्रकार है, और पर्याय द्रव्यका विकार अर्थात् अवस्थाविशेष है। इस तरह द्रव्य परिणमनकी दृष्टिसे गुणपर्यायात्मक होकर भी व्यवहारमें अनन्त परद्रव्योंकी अपेक्षा अनन्तधर्मा रूपसे प्रतीतिका विषय होता है। अर्थ सामान्यविशेषात्मक है : ___ बाह्य अर्थको पृथक् सत्ता सिद्ध हो जानेके बाद विचारणीय प्रश्न यह है कि अर्थका वास्तविक स्वरूप क्या है ? हम पहले बता आये हैं कि सामान्यतः प्रत्येक पदार्थ अनन्तधर्मात्मक और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यशाली है। इसका संक्षेपमें हम सामान्यविशेषात्मक रूपमें भी विवेचन कर सकते हैं। प्रत्येक पदार्थमें दो प्रकारके अस्तित्व हैं-स्वरूपास्तित्व और सादृश्यास्तित्व । प्रत्येक द्रव्यको अन्य सजातीय या विजातीय द्रव्यसे असंकीर्ण रखनेवाला और उसके स्वतंत्र व्यक्तित्वका प्रयोजक स्वरूपास्तित्व है। इसीके कारण प्रत्येक द्रव्यकी पर्यायें अपनेसे भिन्न किसी भी सजातीय या विजातीय द्रव्यकी पर्यायोंसे असंकीर्ण बनी रहती हैं और अपना पृथक् अस्तित्व बनाये रखती हैं। यह स्वरूपास्तित्व जहाँ इतर द्रव्योंसे १. उद्धृत-सर्वार्थसिद्धि ५ । ३८ । २. "द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषात्मार्थवेदनम् ।" --न्यायविनि० ११३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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