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________________ लोकव्यवस्था साधारण बुद्धिका कार्य नहीं है। दूरकी बात जाने दीजिये, सर्वथा और सर्वदा अतिसमीप शरीरको ही ले लीजिए। उनके भीतर नसाजाल, रुधिरप्रवाह और पाकयंत्रमें कितने प्रकारके परिवर्तन प्रतिक्षण होते रहते हैं, जिनका स्पष्ट ज्ञान करना दुःशक्य है । जब वे परिवर्तन एक निश्चित धाराको पकड़कर किसी विस्फोटक रागके रूपमें हमारे सामने उपस्थित होते हैं, तब हमें चेत आता है। जगत् पारमार्थिक और स्वतःसिद्ध है : । दृश्य जगत् परमाणुरूप स्वतंत्र द्रव्योंका मात्र दिखाव ही नहीं है, किन्तु अनन्त पुद्गलपरमाणुओंके बने हुए स्कन्धोंका बनाव है । हर स्कन्धके अन्तर्गत परमाणुओंमें परस्पर इतना प्रभावक रासायनिक सम्बन्ध है कि सबका अपना स्वतंत्र परिणमन होते हुए भी उनके परिणमनोंमें इतना सादृश्य होता है कि लगता है, जैसे इनकी पृथक् सत्ता ही न हो। एक आमके फलरूप स्कन्धमें सम्बद्ध परमाणु अमुक काल तक एक-जैसा परिणमन करते हुए भी परिपाक कालमें कहीं पीले, कहीं हरे, कहीं खट्टे, कहीं मीठे, कहीं पक्वगन्धी, कहीं आमगन्धी, कहीं कोमल और कहीं कठोर आदि विविध प्रकारके परिणमनोंको करते हए स्पष्ट दिखाई देते हैं। इसी तरह पर्वत आदि महास्कन्ध सामान्यतया स्थलदष्टिसे एक दिखाई देते हैं, पर हैं वे असंख्य पुद्गलाणुओंके विशिष्ट सम्बन्धको प्राप्त पिण्ड ही । ___जब परमाणु किसी स्कन्धमें शामिल होते हैं, तब भी उनका व्यक्तिशः परिणमन रुकता नहीं है, वह तो अविरामगतिसे चलता रहता है। उसके घटक सभी परमाणु अपने बलाबलके अनुसार मोर्चेबन्दी करके परिणमनयुद्ध आरम्भ करते हैं और विजयी परमाणुसमुदाय शेष परमाणुओंको अमुक प्रकारका परिणमन करनेके लिए बाध्य कर देते हैं। यह युद्ध अनादि कालसे चला है और अनन्तकाल तक बराबर चलता जायगा। प्रत्येक परमाणुमें भी अपनी उत्पादन और व्यय शक्तिका द्वन्द्व सदा चलता रहता है। यदि आप सीमेन्ट फैक्टरीके उस बायलरको ठण्डे शीशेसे देखें तो उसमें असंख्य परमाणुओंकी अतितीव्र गतिसे होनेवाली उथल-पुथल आपके माथेको चकरा देगी। तात्पर्य यह कि मूलतः उत्पाद-व्ययशील और गतिशील परमाणुओंके विशिष्ट समुदायरूप विभिन्न स्कन्धोंका समुदाय यह दृश्य जगत् "प्रतिक्षणं गच्छतीति जगत्" अपनी इस गतिशील 'जगत्' संज्ञाको सार्थक कर रहा है। इस स्वाभाविक, सुनियंत्रित, सुव्यवस्थित, सुयोजित और सुसम्बद्ध विश्वका नियोजन स्वतः है उसे किसी सर्वान्तर्यामीकी बुद्धिकी कोई अपेक्षा नहीं है। ___ यह ठीक है कि मनुष्य प्रकृतिके स्वाभाविक कार्यकारणतत्त्वोंकी जानकारी करके उनमें तारतम्य, हेर-फेर और उनपर एक हद तक प्रभुत्व स्थापित कर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.010044
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendramuni
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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