________________
जैनदर्शन
पदार्थ को उत्पन्न नहीं करता किन्तु अपने-अपने कारणोंसे उत्पन्न अनन्त जड़ पदार्थोंको ज्ञान मात्र जानता है | पृथक् सिद्ध ज्ञान और पदार्थ में ज्ञेयज्ञायकभाव होता है । चेतन और अचेतन दोनों प्रकारके पदार्थ स्वयं सिद्ध हैं और स्वयं अपनी पृथक् सत्ता रखते हैं ।
लोक और अलोक :
९८
चेतन अचेतन द्रव्यों का समुदाय यह लोक शाश्वत और अनादि इसलिए है कि इसके घटक द्रव्य प्रतिक्षण परिवर्तन करते रहनेपर भी अपनी संख्या में न तो एकको कमी करते हैं और न एककी बढ़ती हो । इसीलिए यह अवस्थित कहा जाता है । आकाश अनन्त है । पुद्गलद्रव्य परमाणु रूप हैं । काल द्रव्य कालानुरूप हैं । धर्म, अधर्म और जीव असंख्यात प्रदेशवाले हैं । इनमें धर्म, अधर्म, आकाश और काल निष्क्रिय हैं । जीव और पुद्गलमें ही क्रिया होती है । आकाश के जितने हिस्से तक ये छहों द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक कहलाता है और उससे परे केवल आकाशमात्र अलोक | चूँकि जीव और पुद्गलों की गति और स्थितिमें धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य साधारण निमित्त होते हैं । अतः जहाँतक धर्म और अधर्म द्रव्यका सद्भाव है, वहीं तक जीव और पुद्गलका गमन और स्थान सम्भव है । इसीलिए आकाशके उस पुरुषाकार मध्य भागको लोक कहते हैं जो धर्मद्रव्यके बराबर है । यदि इन धर्म और अधर्म द्रव्यको स्वीकार न किया जाय तो लोक और अलोकका विभाग ही नहीं बन सकता । ये तो लोकके मापदण्डके समान हैं ।
लोक स्वयं सिद्ध है :
यह लोक स्वयं सिद्ध है; क्योंकि इनके घटक सभी द्रव्य स्वयं सिद्ध हैं । उनकी कार्यकारणपरम्परा, परिवर्तन स्वभाव, परस्पर निमित्तता और अन्योन्य प्रभावकता, अनादि कालसे बराबर चली आ रही हैं । इसके लिए किसी विधाता, नियन्ता, अधिष्ठाता या व्यवस्थापकको आवश्यकता नहीं है । ऋतुओंका परिवर्तन, रात-दिनका विभाग, नदी-नाले, पहाड़ आदिका विवर्तन आदि सब पुद्गलद्रव्योंके परस्पर संयोग, विभाग, संश्लेष और विश्लेष आदिके कारण स्वयं होते रहते हैं । सामान्यतः हर द्रव्य अपनी पर्यायोंका उपादान है, और सम्प्राप्त सामग्री के अनुसार अपने को बदलता रहता है । इसी तरह अनन्त कार्यकारणभावोंकी स्वयमेव सृष्टि होती रहती है । हमारी स्थूल दृष्टि जिन परिवर्तनोंको देखकर आश्चर्यचकित होती है, वे अचानक नहीं हो जाते । किन्तु उनके पीछे परिणमनोंकी सुनिश्चित परम्परा है । हमें तो असंख्य परिणमनोंका औसत और स्थूल रूप ही दिखाई देता । प्रतिक्षणभावी सूक्ष्म परिणमन और उनके अनन्त कार्यकारणजालको समझना
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org