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जैनदर्शन सकता है, और इस यांत्रिक युगमें मनुष्यने विशालकाय यन्त्रोंमें प्रकृतिके अणुपुञ्जोंको स्वेच्छित परिणमन करनेके लिए बाध्य भी किया है। और जब तक यंत्रका पंजा उनको दबोचे है तब तक वे बराबर अपनी द्रव्ययोग्यताके अनुसार उस रूपसे परिणमन कर भी रहे हैं और करते भी रहेंगे, किन्तु अनन्त महासमुद्रमें बुबुद्के समान इन यंत्रोंका कितना-सा प्रभुत्व ? इसी तरह अनन्त परमाणुओंके नियन्त्रक एक ईश्वरकी कल्पना मनुष्यके अपने कमजोर और आश्चर्यचकित दिमागकी उपज है। जब बुद्धिके उषाकालमें मानवने एकाएक भयंकर तूफान, गगनचुम्बी पर्वतमालाएँ, विकराल समुद्र और फटती हुई ज्वालामुखीके शैलाव देखे तो यह सिर पकड़कर बैठ गया और अपनी समझमें न आनेवाली अदृश्य शक्तिके आगे उसने माथा टेका, और हर आश्चर्यकारी वस्तुमें उसे देवत्वकी कल्पना हुई। इन्हीं असंख्य देवोंमेंसे एक देवोंका देव महादेव भी बना, जिसकी बुनियाद भय, कौतूहल और आश्चर्यकी भूमिपर खड़ी हुई है और कायम भी उसी भूमिपर रह सकती है ।
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